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पाचारांग] केवलिकाल : प्रायं सुधर्मा
८९ में पहले से दूसरे और दूसरे से तीसरे को श्रेष्ठ बताते हुए साधक को निर्देश दिया गया है कि वह जीवन और मरण दोनों में समान रूप से अनासक्त रहते हुए न जीने की अभिलाषा करे और न मरने की प्रार्थना ही। वह प्रात्मचिन्तन के अतिरिक्त मानसिक, वाचिक एवं कायिक सभी प्रकार के व्यापार को बन्द कर केवल आत्मरमण करता हुमा घोर से घोर उपसर्ग उपस्थित होने पर भी शान्त, दान्त एवं स्थिर रहे । प्रनशनावस्था में उसके शरीर के मांस का मदि हिंस्र पशु भक्षण करें या उसके रक्त का पान करें तो उस हिंसा-जन्य वेदना को अपनी आत्मा के लिये अमृतसिंचन तुल्य समझ कर समभाव से अंतिम सांस तक अपने कर्मों की निर्जरा करता रहे। यदि उसे उस अवस्था में मानवोपभोग्य अथवा देवोपभोग्य कमनीय से कमनीय भोगों का भी प्रलोभन दिया जाय तो वह उनको ग्रहण करने की इच्छा तक न करे और मोहरहित हो कर उपरोक्त तीन प्रकार के अनशनों में से यथाशक्ति किसी एक अनशन को हितकारी समझ कर स्वीकार करे। नौवां अध्ययन
नौवें उपधानश्रुत नामक अध्ययन में मुख्य रूप से भगवान् महावीर की साधना का वर्णन है। यह पूरा अध्ययन गाथात्मक है। इसमें एक भी सूत्र नहीं है । इसके ४ उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में भगवान् महावीर द्वारा दीक्षा से दो वर्ष पूर्व सचित्त का त्याग, दीक्षानन्तर विहार, परपात्र एवं परवस्त्र का त्याग और १३ मास पश्चात् देवदूष्य वस्त्र का परित्याग बताया गया है। इसमें यह बताया गया है कि भगवान् महावीर ने केवल पूर्व-तीर्थकरों की परम्परा का निर्वहन करने के लिये ही देवदूष्य वस्त्र स्वीकार किया पर शीत एवं दंस-मशकजन्य परीषहों से बचने के लिये उन्होंने उसका कभी उपयोग नहीं किया।
दूसरे और तीसरे उद्देशक में यह बताया गया है कि भगवान् महावीर को किन-किन विकट क्षेत्रों में विहार कर कैसे-कैसे स्थानों में रहना पड़ा और उन्हें वहां कितने प्रसह्य एवं घोर परीषह सहन करने पड़े।
चौथे उद्देशक में भगवान् महावीर की घोर तपश्चर्यानों के वर्णन के साथसाथ यह भी बताया गया है कि उन्हें भिक्षा में किस-किस प्रकार का रूक्ष एवं नीरस भोजन मिला, कितना समय उन्होंने निराहार रह कर तथा कितना समय बिना पानी के बिताया। अनार्य देश में बिहार के समय वहां के निवासियों द्वारा प्रभ को दिये गये भीषण कष्टों के हृदयद्रावी वर्णन के साथ इसमें बताया गया है कि भगवान् महावीर उन असह्य परीषहों से किंचित्मात्र भी विचलित नहीं हुए।
- इस प्रकार प्राचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में अध्ययन और नवों मध्ययनों के कुल ५१ उद्देशक हैं। महापरिज्ञा अध्ययन और उसके सातों उद्देशकों के विलुप्त हो जाने के कारण वर्तमान में प्रथम श्रुतस्कन्ध के ८ अध्ययन और ४४ उद्देशक ही उपलब्ध हैं।
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