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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [माचारांग चूलिका का अस्तित्व मात्र प्रकट करने के लिये ही किया गया है, इसका पदसंख्या से सीधा कोई संबन्ध नहीं। वस्तुतः यह एक तथ्य है कि प्राचारांग की उस एक चूलिका के पदों की संख्या को दो श्रुतस्कंधात्मक आचारांग की पदसंख्या में सम्मिलित नहीं किया गया है क्योंकि वह आचारांग से प्रगाढ़रूपेण सम्बन्धित होते हुए भी पूर्व-ज्ञान का अंश होने के कारण पाचरांग से पूर्णतः पृथक् एवं भिन्न है। पागम में कहीं उल्लेख नहीं है कि प्राचारांग की पांच चूलिकाएं हैं। यह तो नियुक्तिकार की अपनी स्वयं की स्वतन्त्र कल्पना है। प्रागम द्वारा असमर्थित नियुक्तिकार की इस स्वकल्पित मान्यता से प्रभावित होने के कारण ही अभयदेव सूरि ने आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध को पंचचूलात्मक माना है और अपनी इस पहले से ही बनी हुई धारणा के फलस्वरूप उन्होंने इस सूत्र का अर्थ इस प्रकार किया है - "द्वितीय श्रुतस्कन्धरूपी पांच चूलाओं वाले प्रथम श्रुतस्कन्धात्मक प्राचारांग भगवान् के १८ हजार पद हैं।"
यदि वे मूल आगम (समवायांग एवं नन्दी सूत्र) के द्वादशांगी परिचायक पाठ से प्रभावित होते तो इस सूत्र का अर्थ निम्नलिखित रूप में करते :
"एक चूलिका वाले दो श्रुतस्कंधात्मक प्राचारांग भगवान् के १८,००० पद हैं।" यही अर्थ सही और संगत भी होता क्योंकि "पायारस्स भगवनो" - यह पद दो श्रुतस्कंधात्मक प्राचारांग का परिचायक है न कि एक श्रुतस्कंधात्मक प्राचारांग का। और प्राचारप्राभूत आचारांग की एक ऐसी चूला है जिसकी पदसंख्या आचारांग की पदसंख्या में न कभी सम्मिलित थी और न है।
___"सूत्रों के अर्थ विचित्र और गूढार्थ भरे होते हैं, गुरु के उपदेश से ही उनके अर्थ को समझना चाहिये"-इस प्रकार की उक्ति का अवलम्बन लेकर मूल आगम के पाठ की तुलना में नियुक्तिकार के अभिमत को प्रश्रय देते हुए केवल प्रथम श्रुतस्कन्ध को ही १८००० पदवाला पूर्ण प्राचारांग तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध को उसका पंचचूलात्मक आचाराग्र अथवा परिशिष्ट मात्र बताते समय टीकाकार के पास निर्यक्ति के अतिरिक्त और क्या प्राधार था, यह विचारणीय होते हुए भी स्पष्ट है।
केवल इस सूत्र में ही नहीं इस सूत्र से आगे कोटाकोटि समवाय के पश्चात् प्रागमों का परिचय देते हुए समवायांग में और नन्दी सूत्र में जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि प्राचारांग में दो श्रुतस्कन्ध, २१ अध्ययन. ८५ उद्देशनकाल और ८५ समुद्देशनकाल हैं तथा उसकी पदसंख्या १८,००० है। दोनों श्रुतस्कन्धात्मक प्राचारांग के १८ हजार पद हैं - इस प्रकार का स्पष्ट उल्लेख पागम के मूल पाठों में दो स्थान पर किये जाने के उपरान्त भी "विचित्तत्थागि य मुत्तागि" इस पद का अवलम्बन लेकर.महजसुगम स्पष्ट सूत्रों का अर्थ इस प्रकार बदलने की प्रक्रिया को यदि मान्य किया जाने लगे तो निश्चित रूप से इसका परिणाम अन्ततोगत्वा बड़ा भयावह होगा।
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