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प्राचारांग ]
केवलिकाल : प्रायं सुधर्मां
इस प्रकार नन्दी - चूरिंगकार ने भी कोई प्रागमिक अथवा अन्य आधार प्रस्तुत नहीं किया है कि किस आधार पर वे अपना यह मन्तव्य अभिव्यक्त कर रहे हैं । उपरोक्त सूत्र में प्रयुक्त "सचूलिग्रागस्स" - इस पद पर भी उन्होंने कोई प्रकाश नहीं डाला है ।
नवांगी टीकाकार श्रभयदेव सूरि ने समवायांग सूत्र की समवाय संख्या १८ के उपरोक्त सूत्र की टीका में निर्मुक्तिकार की मान्यता का समर्थन करते हुए एक नवीन युक्ति भी प्रस्तुत की है- "चूलिकानों सहित आचार नामक प्रथम अंग की द्वितीय श्रुतस्कंधात्मिका पिण्डेषरणा आदि पांच चूलाएं हैं। वह प्रथम अंग आचार नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कंध स्वरूप ही है । उस ही का यह पदप्रमारण है न कि चूलाओं का । जैसा कि नियुक्तिकार ने कहा है
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नवभचेरमो, अट्ठारस पयसहस्सियो वेद्यो ।
हवइ य सपंच चूलो, बहु बहुतरम्रो पयग्गेणं ॥ ति ।
जो 'संचूलिकाकस्य' शब्द का इस सूत्र में प्रयोग किया गया है वह इस प्रथमांग का विशेषरण है और वह चूलिकाओं के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिये प्रयुक्त किया गया है न कि चूलिकाओं का पदप्रमारण बताने के लिये ।" इसके पश्चात् उन्होंने नन्दी - टीकाकार ( चूर्णिकार) के उपरोक्त अभिमत को दोहराया है । '
केवल प्रथम श्रुतस्कंध को ही १८००० पदसंख्या वाला श्राचारांग तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध को पंचचलात्मक बता कर उसे आचारांग से भिन्न प्रचाराग्र अथवा आचारांग का परिशिष्ट सिद्ध करने की दृष्टि से "केवल चूलिकानों का अस्तित्व बताने के लिये विशेषरण के रूप में 'सचूलिकाकस्य' शब्द का प्रयोग इस सूत्र में किया गया है" - नवांगी टीकाकार द्वारा इस सूत्र का इस प्रकार का किया गया अर्थ साधारण से साधारण भाषाविद् को भी मान्य नहीं हो सकता । यदि आगमकार को इस सूत्र का इस प्रकार का अर्थ अभिप्रेत होता तो वे निश्चित रूप से "सलिकाकस्य" के स्थान पर इस सूत्र में "चूलिकावर्जस्य" शब्द का प्रयोग करते । पर न इस सूत्र की शब्द रचना को देखते हुए इस प्रकार का अर्थ किंवा जाना संभव है और न सूत्रकार का ही इस प्रकार का अभिप्राय था । आगमकार तो यही बताना चाहते थे कि चूलिकावाले आचारांग का पदपरिमाण १८,००५ पद हैं और उन्होंने अपने इस अभिप्राय को इस सरल सूत्र के माध्यम से स्पष्ट शब्दों में प्रकट कर दिया - "आयारस्स गं भगवओो सचूलियागस्स अट्ठारस सहस्सारण पयग्गेणं पण्णत्ताइं ।”
वांगी टीकाकार द्वारा प्रस्तुत की गई युक्ति के केवल कुछ ही अंश से हम साभार सहमत हैं । उपरोक्त सूत्र में “सचूलिश्रागस्स" शब्द का प्रयोग निश्चित रूप से दो श्रुतस्कंधात्मक प्राचारांग के विशेषरण के रूप में केवल उसकी एक १ समवायांग टीका ( प्रभयदेवसूरिकृता), राय धनपतिसिंह द्वारा प्रकाशित पत्र ५४ ( २ )
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