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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग पाचारांग पांचवें उद्देशक में बताया गया है कि दो वस्त्र एवं एक पात्रधारी, एक साटकधारी अथवा' अचेल साधक समभाव से परीषहों को सहन करे। विभिन्न अभिग्रहधारी साधु जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म को अच्छी तरह जानता हुमा अपने अभिग्रह का यथार्थरूप से पालन करे और भक्तपरिज्ञा द्वारा अन्त में समाधिपूर्वक प्राणत्याग करे ।
छठे उद्देशक में साधु को उपदेश दिया गया है कि यदि उसने एक वस्त्र और एक पात्र रखने का अभिग्रह किया है तो शीतादि परीषहों के समुपस्थित होने पर दूसरे वस्त्र अथवा पात्र की कांक्षा न करे। इस उद्देशक में वस्त्र, पात्र आदि की लाघवता एवं प्रात्मलाघवता अर्थात्-मैं एकाकी हूं, न तो मेरा कोई है और न मैं किसी का हूं- इस प्रकार की भावना को तप और प्रात्मविकास का साधन बताया गया है। इसमें साधु को यह भी उपदेश दिया गया है कि वह रस का आस्वादन नहीं करते हुए पाहार करे और जब उसे विश्वास हो जाय कि संयमसाधना के कठोर क्रियानुष्ठानों का पालन करते हुए अथवा रोगादि के कारण उसका शरीर अत्यंत क्षीण एवं अशक्त हो गया है तो वह किसी गृहस्थ से निर्दोष घास की याचना कर जीवजन्तु रहित एकान्त स्थान में भूमि को परिमार्जित कर तृणशय्या बिछाये और उस पर शान्ति एवं समतापूर्वक इंगितमरण स्वीकार करे।
सातवें उद्देशक में बताया गया है कि जो प्रतिमासम्पन्न अचेलक साधु संयम में अवस्थित है उसके मन में यदि इस प्रकार के विचार उत्पन्न हों कि वह तृणस्पर्श, शीत, उष्ण, डांस मच्छर आदि के परीषहों को सहन करने में तो समर्थ है पर लज्जा को जीतने में असमर्थ है तो उस स्थिति में उसे कटिबन्ध धारण करना कल्पता है।' संयमसाधना अथवा रोगादि के कारण बल तथा शरीर के अत्यधिक क्षीण हो जाने की दशा में साधु के लिये इस उद्देशक में विधान किया गया है कि वह गुफा आदि प्राशुक स्थान में गृहस्थ. से याचना कर लाये हुए तृणों की शय्या बिछा उस पर कटी हुई लकड़ी की तरह निश्चल हो पादोपगमन अनशन करे।
___ आठवें उद्देशक में पंडितमरण का बड़ा ही हृदयस्पर्शी वर्णन करते हुए, बताया गया है कि निरन्तर संयम की कठोर साधना करते हुए अथवा असाध्य रोग से शरीर इतना निर्बल हो जाय कि स्वाध्यायादि संयमसाधना का भी सामर्थ्य न रहे तो मुनि पूर्ववणित विधि से जीवजन्तुरहित एकान्त स्थान में तृणासन बिछा कर बाह्याभ्यंतर ग्रन्थियों के परित्याग के साथ शान्त चित्त से अनशन स्वीकार करे । भक्त प्रत्याख्यान, इंगित मरण और पादोपगमन-इन तीन प्रकार के सन्थारों
' जे भिक्खु अचेले परिवुसिए तस्स रणं भिक्खुस्स एवं भवइ चाएमि अहं तणफास अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए..................हिरिपडिच्छायणं च हं नो संचाएमि अहियासित्तए, एवं से कप्पेइ कडिबन्धरणं धारित्तए ॥२२०॥ (प्राचा०, प्र. ६ उ०)
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