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६ मण• का नि• काल...] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा प्रार्य सुधर्मा के ही नेतृत्व में आ जाता है। क्योंकि भगवान महावीर ने सुधर्मा को गणधर नियुक्त करते समय गरण की अनुज्ञा प्रदान कर दी थी। उसकी सार्थकता सुघर्मा के ५०० शिष्यों के अतिरिक्त अन्य साधु-समुदाय के मिलाने पर ही हो सकती है। अतः और गणधरों के गणों के अतिरिक्त शेष श्रमणों को सुधर्मा के गरण में ही समझना चाहिये। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् मार्य सुधर्मा गणधर के स्थान पर संघाधिनायक प्राचार्य कहलाये क्योंकि वे भगवान महावीर के पट्टधर हो चुके थे ।
क्या सुषर्मा के प्राधीन अन्य प्राचार्य भी थे ? प्रश्न उपस्थित होता है कि हजारों श्रमणों के उस अतिविशाल समुदाय की शिक्षा-दीक्षा और दैनिकचर्या की समुचित व्यवस्था का संचालन तप-स्वाध्यायनिरत और शास्त्र की वाचना देने वाले आर्य सुधर्मा स्वयं ही करते थे अथवा संघ-संचालन में उनके सहायक कोई अन्य प्राचार्य आदि भी थे।
शास्त्रीय प्रकरणों का ध्यानपूर्वक अध्ययन एवं अवलोकन करने पर प्रतीत होता है कि भगवान् महावीर के शासनकाल में जिस प्रकार गणधर और स्थविर मादि श्रमणसंघ की व्यवस्था का कार्य करते थे, उसी प्रकार आर्य सुधर्मा के काल में भी प्राचार्य, स्थविर मादि संघ की व्यवस्था में प्रार्य सुधर्मा का हाथ बटाते थे।
शास्त्र में स्थान-स्थान पर उल्लेख पाता है :
"राणं अंतिए साभाइयमाइपाई एक्कारस अंगाईं अहिज्जइ-बहिज्जित्ता" मादि।
नियुक्ति, रिण प्रादि प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर के समय में भी अलग-अलग प्राचार्यों के नेतृत्व में साधुनों का मध्ययन-अध्यापन एवं विचरण होता था।
भगवान महावीर के शासन में ३०० चतुर्दश पूर्वधर और ४०० वादी थे, तो उनके साथ रहने वाले साधुषों के अध्ययन प्रादि की व्यवस्था उनके द्वारा अवश्य की जाती होगी। आवश्यक रिण आदि ग्रन्थों से हमारे इस अनुमान की पूर्ण पुष्टि होती है जैसाकि नियुक्ति में कहा है - "राजगृही के गुणशील उद्यान में चतुर्दश पूर्वी प्राचार्य वसु के शिष्य तिष्यगुप्त से 'जीवप्रदेश' दृष्टि उत्पन्न हई। मामलकल्पा के मित्रश्री ने उसको प्रतिबोध देकर समझाया।"इससे यह सिद्ध . (क) "जीवपएसा य तीसगुत्तायो ।"
[प्राव० नियुक्ति गाथा] रायगिहे गुणसिलए वसुबोहसपुवि तीसगुत्तामो। प्रामलकप्पा गयरी, मितसिरि करपिंडाई ॥१२८।।
[मूलभाष्य] (स) "वित्तियो सामिणा सोलसवासाई उप्पाडितस्स गाणस्स तो उप्पण्णो। तेणं कालेलं
तेणं समएरणं राबगिहे गुणसिलए चेतिए वतू नाम भगवंतो पायरिया चोद्दसपुब्बी
समोसा , तस्स सीसो तीसगुत्तो नाप्र. [प्राव० चू०, मा० १, पृ. ४१६-२०] (ग) राजगृहे गुणणीलके उद्याने वसुराचार्यश्चतुर्दशपूर्वी समवसृतः, तन्छिष्या
तिष्यगुप्तादेषा दृष्टिरुत्पन्ना।" [प्रावश्यकनियुक्तेरवरिण, भा० १]
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