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भव्य- विराट व्यक्तित्व]
केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा
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परम्परा का प्राकर्षरण केन्द्र और उनका उदात्त प्राध्यात्मिकता से प्रोतः प्रोत प्राभ्यंतर व्यक्तित्व हमारी सम्पूर्ण श्रमण संस्कृति का पुंजीभूत तेजोमय स्वरूप सा प्रतीत होता है ।
वयस्थकालीन साधना
प्रार्य सुधर्मा वेद-वेदांगादि चतुर्दश विद्यानों के कुशल ज्ञाता थे । सकल शास्त्र के पारगामी विद्वान् होने पर भी उन्हें कठोर परिश्रम से अर्जित अपनी विशाल ज्ञानराशि में एक प्रकार की न्यूनता, अपूर्णता एवं रिक्तता का अनुभव होता था । ज्ञान की यह रिक्तता उनके अन्तर्मन में अहर्निश एक शल्य की तरह लटकती रहती थी। वे सत्य की गवेषरणा में सतत प्रयत्नशील थे । जब उन्हें भगवान् महावीर के प्रथम दर्शन हुए तो वे उनकी सौम्य मुखमुद्रा के दर्शन प्रौर उनकी बीतरागतापूर्ण बारणी के श्रवरण से पूर्णरूपेण प्रभावित हुए ।
प्रभुदर्शन से उनके मानस में प्राशा की किरण प्रस्फुटित हुई और उन्हें यह अनुभव हुमा कि उनकी वह रिक्तता प्रपूर्णता विश्व की महान विभूति - भगवान् महावीर के द्वारा अवश्य ही भर दी जायगी - पूर्ण कर दी जायगी ।
सर्वश-सर्वदर्शी भगवान् महावीर के मुखारविन्द से अपने अन्तर्मन की निगूढतम शंका को सुन कर तो वे प्राश्चर्य से अभिभूत हो गये और उनकी वह श्राशा तत्क्षरण प्रास्था के रूप में परिरणत हो गई । भगवान् महावीर की तर्कसंगत एवं युक्तिपूर्ण प्रमोघ वाणी से अपने सन्देह का सम्पूर्ण रूप से समाधान होते ही धार्य सुधर्मा ने परम सन्तोष का अनुभव करते हुए श्रमण दीक्षा ग्रहण कर अपने प्रापको प्रभु की चरण-शरण में समर्पित कर दिया। भगवान् महावीर द्वारा दिये गये 'त्रिपदी' के ज्ञान से प्रार्य सुधर्मा ने प्रपने अन्तर में भरे प्रक्षय्य ज्ञान भण्डार के बन्द कपाटों की मानो कुंजी ही प्राप्त कर ली । अभ्यन्तर के कपाट खुलते ही उनके मनोमंदिर में अनन्तकाल से प्राधिपत्य जमाया हुआ निबिड़तम प्रज्ञानान्धकार क्षण भर में तिरोहित हो गया और उसके स्थान पर अनिर्वचनीय, शुभ्र, दिव्य प्रकाश जगमगा उठा ।
प्रायं सुधर्मा ने प्रभु के प्रथमोपदेश से सामायिक चारित्र के महत्व को प्रात्मसात् कर प्रपने लोकजनीन प्रकाण्ड पाण्डित्य के प्रवाह को थोथे कर्मकाण्ड की प्रोर से मोड़ कर सम्पूर्ण सावद्य - त्यागरूप सामायिक चारित्र की दिशा में जोड़ दिया । पूर्ण ज्ञानी त्रिलोकगुरु भगवान् महावीर के उपदेशों से उन्होंने प्रपने ज्ञान की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि के साथ-साथ श्रमरणसंघ की सुव्यवस्था, उन्नति एवं अभिवृद्धि करते हुए भार्य जम्बू और प्रभव जैसे सहस्रों भव्यों को श्रमरणधर्म में दीक्षित किया। शासन सेवा की तरह प्राप कठोर और दीप्त तप की साधना में भी पीछे नहीं रहे । उपशम भावपूर्वक घोर तपस्या के प्रभाव से उन्हें अनेक प्रकार की प्राश्चर्यकारी लब्धियां भी शक्तिरूप से प्राप्त हो गई । परन्तु प्रापने सदा शान्त, दान्त एवं गम्भीर भाव से उन सिद्धियों को अपने अभ्यन्तर में ही दबाये रखा ।
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