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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ वर्त० द्वा० के ०
तो प्रभु की निर्वारणरात्रि में ही केवली बन गये और १२ वर्ष पश्चात् प्रार्य सुधर्मा को अपना गण. सौंप कर निर्वाण को प्राप्त हुए । प्रतः प्रार्य सुधर्मा को छोड़कर शेष दशों गणधरों की शिष्य-परम्परा और वाचनाएं उनके निर्वारण के साथ ही समाप्त हो गईं, मागे नहीं चल सकीं ।
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ऐसी अवस्था में भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनके धर्मतीर्थ के उत्तराधिकार के साथ-साथ भगवान् के समस्त प्रवचन का उत्तराधिकार भी मार्य सुधर्मा को प्राप्त हुआ और केवल प्रार्य सुधर्मा की ही मंगवाचना प्रचलित रही । बारहवें अंग दृष्टिवाद का प्राज से बहुत समय पहले विच्छेद हो चुका है । प्राज जो एकादशांगी उपलब्ध है, वह प्रार्य सुधर्मा की ही वाचना है । १ इस तथ्य की पुष्टि करने वाले अनेक प्रमारण मागमों में उपलब्ध हैं उनमें से कुछ प्रमारण यहां प्रस्तुत किये जा रहे हैं :
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आचारांग सूत्र के उपोद्घातात्मक प्रथम वाक्य में "सुयं मे प्राउ ! तेरण भगवया एवमक्खायं ।” अर्थात् - हे प्रायुष्मन् (जंबू) मैंने सुना है, उन भगवान् महावीर ने इस प्रकार कहा है" । इस वाक्य रचना से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि इस वाक्य का उच्चारण करने वाला गुरु अपने शिष्य से वही कह रहा है जो स्वयं उसने भगवान् महावीर के मुखारविन्द से सुना था ।
आचारांग सूत्र की ही तरह समवायांग, स्थानांग, व्याख्या- प्रज्ञप्ति प्रादि अंग-सूत्रों में तथा उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि अंगबाह्य श्रुत में भी प्रार्य सुधर्मा द्वारा विवेच्य विषय का निरूपण - "सुयं मे भाउ ! तेण भगवया एवमक्वायं" इसी प्रकार की शब्दावली से किया गया है ।
अनुत्तरोपपातिक सूत्र, ज्ञाताधर्म कथा आदि के आरंभ में और भी स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है :
14.......... 'तेरणं कारणं तेरणं समएणं रायगिहे नयरे, प्रज्ज सुहम्मस्स समोसरणं परिसा पडिगया ॥ २ ॥
जंबू जाव पज्जुवासइ एवं वयासी जद्दणं भंते! समरणेणं जाव संपलेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं प्रयमट्ठे पण्णत्ते, नवमस्स णं भंते ! अंगस्स प्रणुत्तरोववाइयदसाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के प्रट्ठे पते || ३ ||
तरण से सुहम्मे अरणगारे जंबू अरणगारं एवं वयासी - एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं नवमस्स श्रंगस्स श्रणुत्तरोववाइयदसाणं तिष्णि वग्गा पण्णत्ता ॥४॥"
आर्य जम्बू ने अपने गुरु श्रार्य सुधर्मा से समय-समय पर अनेक प्रश्न प्रस्तुत करते हुए पूछा - "भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने प्रमुक अंग का क्या अर्थ बताया ? "
अपने शिष्य जम्बू के प्रश्न के उत्तर में उन अंगों का अर्थ बताने का उपक्रम करते हुए प्रार्य सुधर्मा कहते हैं - "आयुष्मन् जंबू ! अमुक अंग का जो
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