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वर्तमान द्वादशांगी के रचनाकार ] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा
अपनी शैली में सूत्रबद्ध करते हैं । वे ही बारह अंग प्रत्येक तीर्थंकर के शासनकाल में द्वादशांगी - सूत्र रूप में प्रचलित एवं मान्य होते हैं । द्वादशांगी का गणिपिटक के नाम से भी उल्लेख किया गया है। सूत्र गणधर - कथित या प्रत्येकबुद्ध-कथित होते हैं । वैसे श्रुतकेवलि-कथित और अभिन्न दशपूर्वी कथित भी होते हैं ।
यद्यपि विभिन्न तीर्थंकरों के धर्मशासन में तीर्थस्थापना के काल में ही गणधरों द्वारा द्वादशांगी की नये सिरे से रचना की जाती है तथापि उन सब तीथंकरों के उपदेशों में जीवादि मूल भावों की समानता एवं एकरूपता रहती है क्योंकि प्रर्थ रूप से जैनागमों को अनादि अनंत अर्थात् शाश्वत माना गया है। जैसा कि नन्दीसूत्र के ५८वें सूत्र में तथा समवायांगसूत्र के १८५वें सूत्र में कहा गया है।
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“इच्चेइयं दुवालसंग गरि पिडगं न कयाई नासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ, भुवि च भवइ य भविस्सइ य, धुवे, निम्रए, सासए, प्रक्खए, अवए, प्रवट्ठिए निच्चे । "
समय-समय पर अंगशास्त्रों का विच्छेद होने और तीर्थंकरकाल में नवीन रचना के कारण इन्हें सादि और सपर्यवसित भी माना गया है । इस प्रकार द्वादशांगी के शाश्वत और प्रशाश्वत दोनों ही रूप शास्त्रों में प्रतिपादित किये गये हैं । इस मान्यता के अनुसार प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल के अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर श्रमण भगवान् महावीर द्वारा चतुर्विध तीर्थ की स्थापना के दिन जो प्रथम उपदेश इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरों को दिया गया, भगवान् की उस वारणी को अपने साथी अन्य सभी गणधरों की तरह आर्य सुधर्मा ने भी द्वादशांगी के रूप में सूत्रबद्ध किया
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ग्यारहों गणधरों द्वारा पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र रूप से ग्रथित बारह ही अंगों में शब्दों और शैली की न्यूनाधिक विविधता होने पर भी उनके मूल भाव तो पूर्णरूपेण वही थे जो भगवान् महावीर ने प्रकट किये ।
पहले बताया जा चुका है कि भगवान् महावीर के ११ गणधरों की वाचनात्रों की अपेक्षा से गरण थे और उनकी पृथक्-पृथक् ६ वाचनाएं थीं । ११ में से 8 गणधर तो भगवान् महावीर के निर्वाण से पूर्व ही मुक्त हो गये । केवल इन्द्रभूति और आर्य सुधर्मा ये दो ही गरणधर विद्यमान रहे । उनमें भी इन्द्रभूति गौतम " प्रत्यं भासइ प्ररहा, सुत्तं गंधति गणहरा निउणं ।
सासरणस्स हिपट्ठाए, तम्रो सुत्तं पवतइ ।। १६२ ।। -
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"दुवालसंग गरि पिड़ग "
3 सुत्तं गरणहरकथिदं तहेव
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[ आ० नियुक्ति, गा० १९२, धवला भा० १ पृ० ६४, ७२ ] [ समवायांग सूत्र १ व १३६, नंदी० ४० | पत्तेयबुद्धकथिदं च ।
सुदकेवलिगा कथिदं अभिण्णदसपुव्वकथिदं च || ४ ||
[ मुलाचार, ५-८० ]
४ इच्चेइयं दुवालगंगं गरिपिड बुच्छिनियट्टाए साध्यं सगज्जव मियं प्रयुच्छित्तिनपट्ठाए
मरणाइयं गज्जव मियं ।
[ नन्दी मु०, मू०.४२ ]
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