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वर्तमान द्वादशांगी के रचनाकार] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा
अर्थ भगवान् महावीर ने फरमाया वह मैंने स्वयं ने सुना है। उन प्रभु ने अमुक अंग का अमुक अध्ययन का, अमुक वर्ग का यह अर्थ फरमाया है."
अपने शिष्य जम्बू को आगमों का ज्ञान कराने की उपरिवरिणत परिपाटी सुखविपाक, दुखविपाक आदि अनेक सूत्रों में भी परिलक्षित होती है।
नायाधम्मकहानो के प्रारम्भिक पाठ से भी यही प्रमाणित होता है कि वर्तमान काल में उपलब्ध अंग-शास्त्र प्रार्य सुधर्मा द्वारा गुंफित किये गये हैं।'
आगमों में उल्लिखित -- "उन भगवान् ने इस प्रकार कहा -" इस वाक्य से यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि इन आगमों में जो कुछ कहा जा रहा है उसमें किंचित्मात्र भी स्वकल्पित नहीं अपितु पूर्णरूपेण वही शब्दबद्ध किया गया है जो श्रमण भगवान् महावीर ने उपदेश देते समय अर्थतः श्रीमुख से फरमाया था।
केवल धवला को छोड़कर सभी प्राचीन दिगम्बर ग्रन्थों में भी यही मान्यता अभिव्यक्त की गई है कि अर्थ रूप में भगवान महावीर ने उपदेश दिया और उसे सभी गणधरों ने द्वादशांगी के रूप में ग्रथित किया। प्राचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने विक्रम की छठी शताब्दी में तत्वार्थ पर सर्वार्थसिद्धि की रचना की उसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है कि परम. अचिन्त्य केवलज्ञान की विभूति से विभूषित सर्वज्ञ परमषि तीर्थंकर ने अर्थरूप से आगमों का उपदेश दिया। उन तीर्थंकर भगवान् के अतिशय बुद्धि सम्पन्न एवं श्रुतकेवली प्रमुख शिष्य गणधरों ने अंग-पूर्व लक्षण वाले प्रागमों (द्वादशांगी) की रचना की।
इसी प्रकार प्राचार्य अकलंक देव (वि. ८वीं शती) ने तत्त्वार्थ पर अपनी राजवात्तिक टीका में और आचार्य विद्यानन्द (वि. हवीं शती) ने अपने तत्त्वार्थ ' "तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्ज सुहम्मस्स अरणगारस्स जेठे अंतेवासी प्रज्ज जंबू नामे
प्रणगारे"...................."प्रज्ज सुहम्मस्स थेरस्स नच्चासन्ने नाइदूरे,........."विणएणं पज्जुवासमाणे एवं वयासी जइणं मंते समणेणं भगवया महावीरेणं............"पंचमस्स मंगस्स अयमठे पन्नत्ते छट्ठस्स रणं मंते ! नायधम्मकहाणं के प्रठे पन्नत्ते ? जंबूत्ति मज्जसुहम्मे थेरे अज्ज जंबू नामं प्रणगारं एवं वयासी..............।"
[नायाधम्मकहानो १-५] । तत्र सर्वज्ञेन परमर्षिणा परमाचिन्त्यकेवलज्ञानविभूतिविशेषेण अर्थत आगम उद्दिष्टः ।......"
तस्य साक्षात् शिष्यः बुढ्यतिशदियुक्तं : गणधरैः श्रुतकेवलिभिरनुस्मृतग्रन्थरचनम्अंगपूर्वलक्षणम् ।
[सर्वार्थसिद्धि १-२०] 3 बुदयतिशढियुक्त गणघररनुस्मृतग्रन्थरचनम्-पाचारादि द्वादशविघमंगप्रविष्टमुच्यते ।
- [राजवार्तिक १-२० १२, पृ० ७२] ४ (क) तस्याप्यर्थतः सर्वज्ञवीतरागप्रणेतृकत्वसिद्धेः अहंदुभाषितार्थ गणधर देव: ग्रथितम् इति वचनात् ।
[तत्वार्थश्लोकवातिक, पृ० ६] (ख) द्रव्यश्रुतं हि द्वादशांगं वचनात्मकमाप्तोपदेशरूपमेव, तदर्थज्ञानं तु भावश्रुतं, तदुभयमपि
ग़णधरदेवानां । भगवदर्हत्सर्वज्ञवचनातिशयप्रसादात् स्वमतिश्रुतज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपमशमातिशयांच्च उत्पद्यमानं कथमाप्तायत्तं न भवेत् ?
[तत्वार्थश्लोकवात्तिक]
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