________________
माचारांग)
केवलिकाल : मार्य सुधर्मा ___ महापरिज्ञा अध्ययन पर दी हई उपरिलिखित ह निर्यक्ति-गाथाओं से इस अध्ययन के विषय पर स्पष्ट रूप से पूर्ण प्रकाश तो नहीं पड़ता पर इतना संकेत अवश्य मिलता है कि इस अध्ययन में साधक को अपने सम्पूर्ण साधक जीवन में प्रतिपल प्रतिपद पर सजग रहने, साध्वाचार तथा साध्वाचार के अतिचारों को विशिष्ट प्रज्ञा द्वारा भलीभांति समझकर तीव्र मोह के उदय से उत्पन्न सभी प्रकार के यौन अथवा अन्य परीषहों एवं उपसर्गों से किंचित्मात्र भी चलित न हो ब्रह्मनिष्ठ, आत्मनिष्ठ और संयमनिष्ठ रहने का उपायों सहित उपदेश दिया गया था।
लुप्त हुए "महापरिज्ञा” अध्ययन में किन-किन विषयों का निरूपण किया गया था इस सम्बन्ध में उपर्युल्लिखित टीका, रिण एवं नियुक्ति के उल्लेखों के अतिरिक्त एक और बड़ा ही महत्त्वपूर्ण उल्लेख आचारांग-द्वितीय श्रुतस्कन्ध की नियुक्ति तथा टीका में उपलब्ध होता है। उसमें यह बताया गया है कि प्राचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की “सप्तसप्तिका" नाम की द्वितीया चूला के सातों अध्ययनों की रचना आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के महापरिज्ञा नामक सातवें अध्ययन के सातों उद्देशकों के आधार पर की गई है।'
नियुक्तिकार और टीकाकार, दोनों ने ही आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध को प्राचारांग और द्वितीय श्रुतस्कन्ध को प्राचाराग्र बताते हुए कहा है कि नवब्रह्मचर्याध्ययनात्मक आचारांग में साधुओं के जानने योग्य सभी बातें नहीं बताई जा सकी हैं तथा अनेक बातें संक्षेप में बताई गई हैं। शिष्यों को उन सब आवश्यक ज्ञेय वस्तुओं का स्पष्टरूपेण बोध हो जाय इस दृष्टि से चतुर्दशपूर्वधर स्थविरों ने
दन्वे. खेत्ते काले भावंमिय जे भवे महंताउ । तेसु महासद्दो खलु, पमाणउ होंति निप्पण्णो ॥६४।। दवे खेत्ते काले, भावे परिण्णा य बोधव्वा । जाणण उववक्खणउ य, दुविहा पुणेक्केक्का ॥६५॥ भावपरिणा दुविहा, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूलगुणे पंचविहा, दुविहा पुण उत्तरगुणेसु ॥६६।। पाहणाण उपमयं भाव, परिण्णाए तह य दुविहाए। परिणाणेसु पहाणे, महापरिणा तउ होइ ॥६७।। देवीणं मणुईणं, तिरिक्खजोरिणगयाण इत्थीरणं । तिविहेण परिव्वाउ, महापरिणाए निज्जुत्ती ॥६८।।
__ [प्राचारांग-नियुक्ति (प्रथम श्रुतस्कध)] ' सत्तेकाणि सत्तवि, णिज्जूढाई महापरिणाप्रो । .........।।६।।
[आचारांग नियुक्ति, श्रुत० २] (ख) तथा महापरिज्ञाध्ययन सप्तोद्दे शकास्तेभ्यः प्रत्येक सप्तापि सप्तकका निव्यूंढा ।
[शीलांकाचार्यकृत आचारांग टीका, पृ० ४]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org