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पाचारांग]
केवलिकाल : आर्य सुधर्मा इस तथ्य के स्पष्ट हो जाने के पश्चात् यह प्रश्न उपस्थित होता है कि प्राचारांग-नियुक्ति की रचना किस समय की गई ? परम्परागत जनश्र ति के प्राधार पर बहुत प्राचीन काल से यह मान्यता चली आ रही है कि चतुर्दश पूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु ने प्राचारांगादि १० सूत्रों पर नियुक्तियों की रचना की। श्रतकेवली भद्रबाह का प्राचार्यकाल वीर नि० सं० १५६ से १७० तक का है। नियुक्तियों में उल्लिखित अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों, घटनाओं और व्यक्तियों से सम्बन्धित विवेचनों पर गम्भीरतापूर्वक पर्यालोचन के पश्चात् प्रत्येक निष्पक्ष विचारक की यह निश्चित धारणा बन जाती है कि परम्परागत मान्यता के अनुसार चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु भले ही मूल नियुक्तियों के रचनाकार रहे हों पर वर्तमान में जो स्वरूप इन नियुक्तियों का उपलब्ध होता है, वह स्वरूप विक्रम सं० ५६२ के आस-पास हुए नैमित्तिक भद्रबाहु ने प्रदान किया। इसी ग्रन्थ के आगे के श्रतकेवली प्राचार्य भद्रबाहु के प्रकरण में एतद्विषयक महत्वपूर्ण तथ्यों पर यथास्थान पर्याप्त प्रकाश डालने का प्रयास किया जायगा।
उपर्यल्लिखित तथ्यों पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि आचारांग सूत्र का महापरिज्ञा नामक सातवां अध्ययन नियुक्तियों को अन्तिम रूप देने वाले नैमित्तिक भद्रबाह के समय में वि० सं० ५६२ तक विद्यमान था
और इसके पश्चात् वि० सं० ५६२ से वि० सं० ६३३ के बीच की ३७१ वर्ष की अवधि में किसी समय वह लुप्त हो गया।
विषय-वस्तु यह तो पहले बताया जा चुका है कि महापरिज्ञा अध्ययन में किन-किन विषयों का समावेश था, यह आधिकारिक रूप से विस्तारपूर्वक नहीं बताया जा सकता क्योंकि मूलतः यह अध्ययन विलुप्त हो चुका है। फिर भी प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययनों की विषय-परिचायिका गाथाओं में, और शीलांकाचार्यकृत इनकी टीका में किचित संकेत के रूप में और प्राचारांग नियुक्ति में उसकी अपेक्षा थोड़े विस्तार के साथ महापरिज्ञा अध्ययनान्तर्गत विषय का परिचय दिया गया है।
प्राचारांग नियुक्ति में प्रथम श्र तस्कन्ध के अध्ययनों के विषय का परिचय देते हुए सातवें महापरिज्ञा अध्ययन का विषय बताया गया है- "मोहजन्य परोषह उपसर्ग ।” इस गाथा-पद की व्याख्या करते हुए टीकाकार आचार्य शीलांक ने लिखा है “संयमादि गुण युक्त साधु के समक्ष यदि कभी मोहजन्य ' जियसंजमो य लोगो, जह वज्झइ जह य तं पज्जहियन्वं । सुहदुक्खतितिक्खा वि य, संमत लोगसारो य ।।३३।। निस्संगया य छठे, मोहसमुत्था परीसहोवसग । निज्जारणं अट्ठमए, नवमे य जिणेरण पयंति ॥३४।।
[प्राचारांग-नियुक्ति, (प्रथम श्रुतस्कंध)]
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