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भाचारांग] केवलिकाल : पायं सुधर्मा
८१ उसी प्रकार मोह में आसक्त व्यक्ति न तो सत्य-मार्ग को देख सकता है और न प्रशस्त पथ पर चल कर शान्ति के स्थल पर ही पहुंच सकता है । इसके परिणामस्वरूप वह जन्म-मरण और संसार के दुःखों की चक्की में निरन्तर पिसता रहता है। अतः साधक को चाहिये कि वह सांसारिक मोह एवं प्रासक्ति से सर्वथा बचा रह कर सदा साधनारत रहे।
द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि जो साधक परीषहों से. डर कर साधुत्व एवं वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपंछनक, रजोहरणादि संयमसाधना के उपकरणों का परित्याग कर देते हैं वे दीर्घकाल तक भवभ्रमण करते रहते हैं और जो साधक परीषहों को समभाव से सहन करते हुए संयमपूर्वक साधना में निरत रहते हैं वे अन्ततोगत्वा संसारसागर को पार कर निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं।
तृतीय उद्देशक में साधु को उपदेश दिया गया है कि वह धर्मोपकरणों के अतिरिक्त अन्य उपकरणों को कबन्ध का कारण समझे। वह कभी मन में इस प्रकार का विचार न करे कि मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया है अतः नये वस्त्र को याचना करूंगा, अथवा सूई-धागे की याचना कर फटे हुए वस्त्र को सीऊंगा अपितु वह उन धीर-वीर महापुरुषों के चरित्र का चिन्तन करे, जिन्होंने निर्वस्त्र रह कर अनेक पूर्वो अथवा वर्षों तक संयम-मार्ग में स्थिर रह परीषहों को सहन कर परमपद प्राप्त किया। साधक उन महापुरुषों की तरह परीषहों को सहन करने की शक्ति अपने अन्तरं में उत्पन्न करने की कामना करे । परीषहों को सहन करतेकरते जिस साधक की भुजाएं कृश हो जाती हैं, मांस तथा रुधिर स्वल्प मात्रा में अवशिष्ट रह जाता है और जिसने राग-द्वेष पर विजय प्राप्त कर समत्वभाव प्राप्त कर लिया है वह साधक संसारसागर को पार कर लेता है। इसके पश्चात् संयमनिष्ठ साधु को असन्दीन (जल से कभी न भरने वाले) द्वीप की उपमा देते हुए सब जीवों की रक्षा करने वाला तीर्थंकरप्रणीत धर्मतीर्थस्वरूप बताया गया है।
___ चतुर्थ उद्देशक में बताया गया है कि जो साधू ज्ञान और प्राचार दोनों से ही भ्रष्ट हो जाते हैं वे अनन्त काल तक भवभ्रमरण करते हुए संसार में भटकते रहते हैं अतः साधक को चाहिये कि वह अहर्निश ज्ञान और क्रिया की साधना में निरत रह कर मुक्तिपथ की ओर अग्रसर होता रहे।
पंचम उद्देशक में उपदेष्टा के लक्षणों का निरूपण करते हुए बताया गया है कि उपदेष्टा वस्तुतः कष्टसहिष्ण, वेदवित् अर्थात् आगमज्ञान में निष्णात, सर्वभूतानुकम्पी, सकल चराचर जीवनिकाय का शरुण्यभूत हो। उसका उपदेश समष्टि के लिये और समष्टि का हितसाधक तथा शान्ति, क्षमा, अहिंसा, विरति, कषायों के उपशमन, निर्वाण, निर्दोष व्रताचरण, सरलता, मृदुता एवं लाघवता आदि विषयों पर आगमानुसार होना चाहिये। उपदेश देते समय मुनि स्वयं की तथा अन्य की प्राशातना-अवहेलना न करे। जिस प्रकार धीर, वीर योद्धा संग्राम में सबसे आगे रह कर शत्रुओं के साथ घोर युद्ध करता हुआ विजय प्राप्त करता
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