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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचारांग परीषह अथवा उपसर्ग उत्पन्न हो जायं तो उसे चाहिये कि वह उन्हें दृढ़ता के साथ समीचीन रूपेण सहन करे।'
, प्राचारांग नियुक्ति में महापरिज्ञा अध्ययन पर जो ६ गाथाएं दी हुई हैं उनमें से पहली दो गाथाओं में यह बताया गया है कि साधक अपनी दैनंदिनी क्रिया से लेकर अंतक्रिया संलेखना तक में अपने सम्मुख उपस्थित होने वाले अनुकूल परीषहों तथा साध्वाचार के समस्त अतिचारों को उत्कृष्ट कोटि के प्रादर्श एवं विशिष्ट ज्ञान से समझ कर उनसे किंचित्मात्र भी विचलित न होते हुए संयममार्ग में स्थिर रहे ।
___ इनसे आगे की तीन गाथाओं में बताया गया है कि महा शब्द का प्राधान्य अर्थ में और परिमारण अर्थ में भी प्रयोग होता है। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की दृष्टि से जो प्राधान्यता में महान् हों वहां महा शब्द प्राधान्यता का द्योतक और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से जहां, आकार, प्रकार, परिमारण, भार आदि का बोध कराने के लिये महा शब्द का प्रयोग किया जायगा वहां वह परिमारण का बोधक होगा।
इससे आगे की तीन गाथाओं में परिज्ञा के द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की दृष्टि से भेद उपभेद बताने के पश्चात् भावपरिज्ञा को मूलगुण एवं उत्तरगुरण के भेद से दो प्रकार का, मूल गुण भावपरिज्ञा को पांच प्रकार का और उत्तर गुण भावपरिज्ञा को दो प्रकार का बताया गया है और यह कहा गया है कि प्राधान्यता की दृष्टि से दोनों प्रकार की परिज्ञाओं में जो सर्वोत्तम परिज्ञान होता है उसे महापरिज्ञा कहते हैं।
'इस अध्ययन की नियुक्ति की अंतिम गाथा में साधक को यह निर्देश दिया गया है कि वह मन, वचन और काय से पूर्णतया देवांगना, मानवांगना एवं तिर्यंचांगना का परित्याग करे।
' सम: त्वयं-संयमादि गुणयुक्तस्य कदाचित्मोहसमुत्था परीषहोपसर्गा वा प्रादुर्भवेयुस्ते स, बोहव्या।
[प्राचारांग, शीलांकाचार्यकृत टीका, पृ०८] २ स... ।। तिष्णिपलिया, सीयंपरीसह हीयासणं धुवणं ।
सूईमादियाणं, सन्निही अट्ठवडिया ।।६।। प्रासंदीय प्रकरणं उवएसाणं निकायणा चेव ।। संलेहणिया ऐया, भत्तपरिणंतकिरिया य ॥६१।। पाहत्थे महासदो परिमाणो चेव होइ नायव्यो । पाहणे परिमाणे य छविह. होइ निक्लेवो ।।६२।। दब्वे खेत्ते काले, भावंमि य होंति या पहाणाउ । तेसिं महासद्दो खलु, पाहणेणं तु निप्पन्नो ।।६३।।
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