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८.
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग माचारांग छट्टे उद्देशक में बताया गया है कि जो साधक जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित संयमधर्म का अपने प्राचार्य की आज्ञानुसार अप्रमत्तरूप से निरन्तर पालन करता है और सब प्रकार के कर्मबन्धों के भाव-स्रोतों से पूरी तरह बचते हुए साधनारत रहता है वह क्रमशः चार घातिकर्मों का क्षय कर अन्त में जन्म-मरण के बन्धन से निर्मुक्त हो निरञ्जन-निराकार, सच्चिदानन्दस्वरूप सिद्धत्व को प्राप्त करता है। इसमें सिद्ध भगवान् के स्वरूप का वर्णन करते हुए बताया गया है"वह जन्म-मरण के मार्ग से परे, मुक्तावस्था में रत, शब्दों द्वारा अनिर्वचनीय, तर्क द्वारा प्रगम्य, मति द्वारा अग्राह्य, केवल विशुद्ध चैतन्य, अनन्त ज्ञान-दर्शनयुक्त, अनन्त अक्षय सुख एवं अनन्त शक्ति सम्पन्न, मोक्ष का क्षेत्रज्ञ, परमपद का अध्यासी, है। न वह दीर्घ है न ह्रस्व, न वर्तुलाकार, न त्रिकोण, न चतुष्कोण, न परिमंडलाकार, न कृष्ण, न नील, न रक्तवर्ण, न पीत, न श्वेत, सुगन्ध एवं दुर्गन्ध रहित, न तिक्त, न कटु, न कषायरस वाला, न खट्टा, न मधुर, कर्कश अथवा कोमल स्पर्श रहित, न भारी न हल्का, न उष्ण न शीत, न स्निग्न, न रूक्ष, काया-लेश्या तथा कर्मबीज से रहित, नितान्त निस्संग, न स्त्री, न पुरुष और न नेपुसंक, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी, निरुपम, अरूपी सत्ता वाला और प्रपद होने के कारण वह सिद्ध भगवान् किसी भी पद के द्वारा अनिर्वचनीय-अनिरूपरणीय हैं।' छट्ठा प्रध्ययन
__छठे अध्ययन का नाम धूत अध्ययन है। धूत का अर्थ है किसी वस्तु पर लगे मैल को दूर करके उसे स्वच्छ बना देना। इस अध्ययन में प्रात्मा पर लगे कर्म-मैल को तप-संयम द्वारा दूर कर प्रात्मा को समुज्वल बनाने का उपदेश दिया गया है। इस अध्ययन के ५ उद्देशक हैं।
इसके प्रथम उद्देशक में बताया गया है कि जिस प्रकार शैवाल से समाच्छादित जलाशय का कछुमा बाहर की वस्तुओं एवं बाहर जाने के मार्ग को नहीं जान सकता, जिस प्रकार एक वृक्ष अपना अधोभाग पृथ्वी में गड़ा हुआ होने के कारण शीतोष्णादि संकटों से अपना बचाव करने हेतु अन्यत्र नहीं जा सकता, ' अच्चेइ जाईमरर रस वट्टमग्गं विक्खायरए, सव्वे सरा नियटुंति, तक्का जत्य न विग्जा,
मई तत्थ न गाहिया, प्रोए अप्पइट्ठाणस खेयन्ने, से न दीहे न हस्से न वट्टे न तंसे न चउरंसे न परिमंडले न किण्हे न नीले न लोहिए न हालिदे न सुक्किल्ले न सुरभिगंधे न दुरभिगंधे न तित्ते न कडुए न कसाए न अंबिले न महुरे न कक्खडे न मउए न गरुए न लहुए न उण्हे न सोए न निद्धे न लुक्खे न काऊ न रूहे न संगे न इत्थी न पुरिसे न ग्रनहा परिन्ने सन्ने उवमा न विज्जए, अरूवी सत्ता, अपयस्स पयं नत्थि ॥
[प्राचारांग सूत्र, अ० ५ उ० ६, सू० १७१] मुण्डकोपनिषद्, १, १, ६ में भी कुछ इसी प्रकार का वर्णन है :
यनद द्रेश्यम ग्राह्यमगोत्रमवर्णम चक्षुः श्रोत्रं तदपारिणपादम् । नित्यं विभु सर्वगतं सुसूक्ष्म तमव्ययं तद्भुनयोनि परिपश्यति धीराः ।
-सम्पादक
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