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द्वादशांगी का परिचय) - केवलिकाल : आर्य सुधर्मा समवायांग सूत्र में सागरोपम कोटाकोटि समवाय के पश्चात् बारह अंगों का क्रम और प्रत्येक का विस्तारपूर्वक परिचय दिया गया है ।
केवल समवायांग ही नहीं अपितु श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के प्राचीन ग्रन्थों में द्वादशांगी का क्रम निम्नलिखित रूप में दिया गया है :
१. प्राचारांग २. सूत्रकृतांग (गोम्मटसार के अनुसार सुद्दयड़) ३. स्थानांग ४. समवायांग ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति (अंगपण्णत्ति के अनुसार विपाकप्रज्ञप्ति)
(गोम्मटसार के अनुसार-विक्खापरणत्ति) ६. ज्ञाताधर्मकथा (अंगपण्णत्ति के अनुसार ज्ञातृधर्मकथा)
(गोम्मटसार के अनुसार-नाहस्स धम्मकहा) ७. उपासकदशा (अंगपण्णत्ति के अनुसार-उपासकाध्ययन) ८. अंतकृद्दशा (गोम्मटसार के अनुसार-अंतयडदसा) ६. अनुत्तरोपपातिक दशा (अंगपण्णति के अनुसार-अनुत्तरोपत्पाद) १०. प्रश्न व्याकरण ११. विपाकसूत्र (विपाकश्रुत, विवायसुय, विवागसुय और विवागत्त
ये सभी समानार्थक नाम हैं।) १२. दृष्टिवाद्र
१. प्राचारांग (१) आचारांग - में श्रमण निग्रंथों के प्राचार, गोचर, विनय, कर्मक्षयादि विनय के फल, कायोत्सर्ग, उठना-बैठना, सोना, चलना, घमना, भोजन-पानउपकरण की मर्यादा एवं गवेषणा आदि, स्वाध्याय, प्रतिलेखन आदि, पांच समिति, तीन गुप्ति का पालन, दोषों को टाल कर शयया, वसति, पात्र, उपकरण, वस्त्र, प्रशन-पानादि का ग्रहण करना, महाव्रतों, विविध व्रतों, तपों, अभिग्रहों, अंगोपांगों के अध्ययनकाल में प्राचाम्ल आदि तप, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार - इन सब बातों का सम्यकरूपेण विचार किया गया है।
प्राचारांग में. वाचनाएं, अनयोगद्वार, प्रतिपत्तियां वेष्टक, श्लोक, नियुक्तियां-ये सभी संख्यात हैं। अंगों के क्रम की अपेक्षा से प्राचारांग का प्रथम स्थान है अतः यह प्रथम अंग माना गया है । श्रुत-पुरुष का प्रमुख अंग प्राचार होने के कारण भी इसे प्रथम अंग कहा गया है।
प्राचारांग में दो थतस्कन्ध, पच्चीस अध्ययन, ८५ उद्देशनकाल एवं ८५ ही समूद्देशनकाल कहे गये हैं। इस प्रथम अंग में १८,००० पद, संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, और इसकी वर्णन परिधि में पाने वाले अमंल्यात म एवं अनन्त स्थावर माने गये हैं ।
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