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... जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [वर्त० द्वा० के रच. श्लोकवात्तिक में इसी मान्यता को अभिव्यक्त किया है कि तीर्थकर प्रागमों का अर्थतः उपदेश देते हैं और उसे सभी गणधर द्वादशांगी के रूप में शब्दता ग्रथित करते हैं।
धवला में यह मन्तव्य दिया गया है कि प्रार्य सुधर्मा को अंगज्ञान इन्द्रभूति गौतम ने दिया। परन्तु श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्परामों के प्राचीन ग्रंथों में कहीं इस प्रकार का उल्लेख नहीं मिलता। ऐसी दशा में यही कहा जा सकता है कि धवलाकार की यह अपनी स्वयं की नवीन मान्यता है । .. श्वेताम्बर प्राचार्यों की ही तरह धवलाकार के अतिरिक्त अन्य सभी प्राचीन दिगम्बर प्राचार्यों की यह मान्यता है कि भगवान महावीर ने सभी गणधरों को अर्थतः द्वादशांगी का उपदेश दिया। जयधवला में जब यह स्पष्टतः उल्लेख किया गया है कि प्रार्य सुधर्मा ने अपने उत्तराधिकारी शिष्य जम्बूकुमार के साथ-साथ अन्य अनेक प्राचार्यों को द्वादशांगो को वाचना दी थी। तो यह कल्पना धवलाकार ने किस आधार पर की कि श्रमण भगवान महावीर ने अर्थतः द्वादशांगी का उपदेश सुधर्मादि अन्य गणधरों को न देकर केवल इन्द्रभूति गौतम को ही दिया?
ऐसी स्थिति में अपनी परंपरा के प्राचीन प्राचार्यों की मान्यता के विपरीत धवलाकार ने जो यह नया मन्तव्य रखा है कि प्रार्य सूधर्मा को द्वादशांगीका ज्ञान भगवान महावीर ने नहीं अपितु इन्द्रभूति गौतम ने दिया इसका पौचित्य विचारणीय है।
ऊपर उल्लिखित प्रमाणों से यह निर्विवादरूपेण सिद्ध हो जाता है कि अन्य गणधरों के समान आर्य सुधर्मा ने भी भगवान महावीर के उपदेश के आधार पर द्वादशांगी की रचना की। अन्य दश गणधर आर्य सुधर्मा के निर्वाण से पूर्व ही अपने-अपने गण उन्हें सम्हला कर निर्वाण प्राप्त कर चुके थे अतः प्रार्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित द्वादशांगी ही प्रचलित रही और आज वर्तमान में जो एकादशांगी प्रचलित है वह आर्य सुधर्मा द्वारा ग्रथित है । शेष गणधरों द्वारा ग्रथित द्वादशांगी वीर निर्वाण के कुछ ही वर्षों पश्चात् विलुप्त हो गई।
द्वादशांगी का परिचय समवायांग और नन्दीसूत्र में द्वादशांगी का परिचय दिया गया है। .' तहिवसे चेव सुहम्माइरियो जंबूसामीयादीणमणेयाणमाइरियाणं वक्खारिणददुवालसंगो घाइचउक्कखयेण केवली जादो।
[जयवला, पृ० ८४] २ सुयं मे पाउसं तेरणं भगवया एवमक्खायं ।। सू० १॥ इह खलु समणेणं भगवया महावीरेणं प्राइगरेणं तित्थगरेणं............."इमे दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णते, तं जहा-पायारे, सूयगडे, ठाणे, समवाए, विवाहपन्नत्ति, नायाधम्मकहानो, उवासगदसामो, अंतगडदसामो, अणुत्तरोववाइयदसामो, पण्हावागरणं, विवागसुए, दिठिवाए।"
[समवायांग, प्रारम्भिक पाठ) . ......."अंगपविटें दुवालसविहं पण्णतं । तं जहा-मायारो, सूयगडो, ठाणं, समवायो, अंतगडदसाम्रो, अरगुत्तरोववाइयदमानो, पण्हावागरणं, विवागसुयं दिठिवायो, ॥सू० ४४।
[नंदीसूत्र]
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