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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्राचारांग शीलांक ने भी अध्ययनों का यही क्रम दिया है। स्थानांग' और समवायांग में महापरिज्ञा अध्ययन को सातवें स्थान पर न रख कर नवम स्थान पर रखा गया है। नंदिसूककी हारिभद्रीया तथा मलयवृत्ति में महापरिज्ञा अध्ययन को आठवें और उपधानध्रुत को नौवें स्थान पर रखा है। इस प्रकार इन अध्ययनों के क्रम में थोड़ा बहुत अंतर उपलब्ध होता है पर संख्या में कहीं कोई अंतर नहीं दिया गया है ।
६ अध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कंध में पांच प्रकार के प्राचार -ज्ञान आचार, दर्शन आचार, चारित्र आचार, तप आचार और वीर्य प्राचार का वर्णन किया गया है। प्रथम अध्ययन
प्रथम श्रुतस्कन्ध के शस्त्र-परिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में ७ उद्देशक हैं, जिसमें विश्वबन्धुत्व का सजीव चित्र खींचते हुए बताया गया है कि प्रत्येक जीव अपने ही समान चेतना वाला है और सब को अपना-अपना जीवन प्रिय है अतः प्रत्येक प्राणी को प्रात्मवत् समझ कर किसी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय में से किसी भी जीव की हिंसा करना दुर्गति और अनन्त भवभ्रमरण का कारण है । वनस्पति काय की सजीवता बताने के लिये अध्ययन में मनुष्य-देह के साथ वनस्पति की तुलना की गई है।
प्रथम अध्ययन का नाम शस्त्र-परिज्ञा रखा गया है, उसका अर्थ यह है कि द्रव्य-शस्त्र-लाठी, तलवार, तोप आदि तथा भाव-शस्त्र काम, क्रोध, मद, मोहादि की भयंकरता एवं उनके द्वारा अजस्ररूपेण वृद्धिगत होने वाले अनन्त भवभ्रमण के भयावह स्वरूप को समझ कर द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र दोनों प्रकार ने शस्त्रों का परित्याग करना। द्रव्य और भावशस्त्रों को जान कर उनका परित्याग करना साधना का प्रथम चरण और मुक्ति का प्रथम सोपान है। द्वितीय अध्ययन
दूसरे "लोकविजय" नामक अध्ययन में ६ उद्देशक हैं । लोकविजय का अर्थ है लोक अर्थात् संसार पर विजय । लोक दो प्रकार का है-पहला, चार प्रकार की गतियों में भ्रमण रूप द्रव्यलोक, और दूसरा राग-द्वेषादि भावलोक । राग-द्वेषादि भावलोक के कारण ही जीव चतुर्गतिरूप द्रव्यलोक में परिभ्रमण करता है । इस अध्ययन में राग-द्वेष-विषय-कषायदि पर विजय प्राप्त करके लोक अर्थात् भवभ्रमण पर विजय प्राप्त करने का उपदेश दिया गया है। इसमें संसार के बीजरूप मूल कारण क्रोध, मान, माया व लोभ का नाश कर वैराग्य एवं संयम में दृढ़चित्त होने त' । सब प्रकार के प्रारम्भ-समारम्भों में ममत्वत्याग का निर्देश ' व बंभचेरा पण्णता तंजहा - सत्यपरिन्ना, लंगविजयो जाव उवहारणसुयं महापरिण्णा ।
[स्थानांग सूत्र, स्थान ६] २ पायारस्स णं भगवो सचूलिपागस्स पणवीसं अज्झयणा पणता तंजहा
सत्थपरिण्णा लोगविजयो सीग्रोसरणीय सम्मत्तं । मावंति धुय विमोह उवहारणसुयं महपरिणा । [समवायांग, समवाय २५]
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