________________
श्राचारांग ]
केवलिकाल : श्रार्य सुधर्मा
है । इसके साथ ही साथ इसमें साधक को अनुकूल तथा प्रतिकूल सभी परिस्थितियों में समभाव रखने और संयमपालन के मार्ग में आने वाली बाधाओं पर विजय प्राप्त कर प्रात्मलक्षी बनने का उपदेश है ।
तृतीय अध्ययन
तीसरे शीतोष्णीय नामक अध्ययन में ४ उद्देशक हैं। शीत का अर्थ है अनुकूल परीषह और उष्ण का अर्थ प्रतिकूल परीषह । इस अध्ययन में साधनापथ के पथिक- भिक्षु को उपदेश दिया गया है कि वह अनुकूल परीषहजन्य सुख की स्थिति में अथवा प्रतिकूल परीषहजन्य दुःख की स्थिति में समभाव रखते हुए साधनापथ पर निरन्तर गतिशील रहे। इसके प्रथम उद्दे शक में असंयमी को सुप्त की संज्ञा दे कर द्वितीय उद्देशक में बताया गया है कि सुप्त व्यक्ति निरन्तर घोर दुःख भोगते रहते हैं । इसके तृतीय उद्देशक में देह-दमन के साथ-साथ श्रमरण के लिये चित्तशुद्धि करना परमावश्यक ही नहीं अनिवार्य बताया गया है। चौथे उद्देशक में कषाय तथा पापकर्म के त्याग एवं संयम में उत्तरोत्तर उत्कर्ष करते रहने का उपदेश है । नियुक्तिकार द्वारा भी तृतीय अध्ययन के इन चारों उद्देशकों का विषयक्रम उपर्युल्लिखित रूप में ही बताया गया है और यही विषयक्रम वर्तमान में उपलब्ध होता है ।
चतुर्थ अध्ययन
चौथे अध्ययन का नाम सम्यक्त व अध्ययन है । सम्यक्त व का अर्थ है शाश्वत सत्य धर्म में विश्वास, आस्था-श्रद्धा-निष्ठा । इस चौथे सम्यक्त व नामक अध्ययन में ४ उद्देशक हैं । इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक के प्रथम सूत्र में शाश्वत सत्य धर्म के स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुए कहा गया है- "प्रतीत, वर्तमान और प्रागामी काल के सभी प्रर्हन्तों तीर्थंकरों का यही कथन है कि किसी भी प्रारणी, भूत, जीव और सत्व की न तो हिंसा करनी चाहिए न करवानी ही चाहिए और न उसको किसी प्रकार की पीड़ा पहुंचानी चाहिए । ग्रहिंसा रूप यही धर्म शुद्ध है, नित्य है और शाश्वत है । सम्पूर्ण लोक के समस्त जीवों के दुःखों को जानने वाले महापुरुषों ने इस (धर्म) का वर्णन किया है । यह अहिंसामूलक धर्म उन सब लोगों को सुनाना चाहिए जो इसको सुनने के लिये उद्यत अथवा अनुद्यत, उपस्थित अथवा अनुपस्थित, मन, वचन एवं काय रूप दण्ड से उपरत अथवा अनुपरत, सोपधिक अथवा निरुपधिक और संयोगरत अथवा संयोग से उपरत हों, क्योंकि यही सच्चा धर्म है, यही मोक्षप्रदायी है ।
७७
ܟܙܙ
Jain Education International
" से बेमि जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे श्रागमिस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खति, एवं भाति, एवं पणविति, एवं परूविति - सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सता, न हंतव्वा, न अज्जावेयव्वा, न परिधित्तव्वा, न परियावेयव्वा, न उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे, निइए, सासए समिच्च लोयं खेयेहि पवेइए, तंजहा - उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा उवट्ठिएस वा श्रवट्ठिएसु वा उवरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा सोवहिएसु वा गोवहिसु वा संजोगरएसु वा असंजोगरएसु वा तच्च चेयं तहा चेयं, श्रस्सिं चेयं पवुच्चइ ।। २२७ ।। [ आचारांग अध्ययन ४ उद्देशक १, सूत्र प्रथम ]
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org