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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[ श्राचारांग
पच्चीस अध्ययनात्मक आचारांग के जो ८५ उद्देशन और ८५ समुद्देशनकाल माने गये हैं उसका कारण यह है कि दोनों श्रुतस्कन्धों के कुल मिला कर ८५ उद्देश होते हैं । उनमें से प्रत्येक उद्देशक का वाचनाकाल एक-एक मान कर उद्देशकों के अनुसार ही उद्देशनकाल कहे गये हैं, जो इस प्रकार हैं :
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प्रथम अध्ययन के ७, दूसरे के ६, तीसरे और चौथे के चार-चार, पाँचवें के ६, छठे के ५, सातवें के ८, आठवें के ७, नौवें के ४, दशवें के ११, ग्यारहवें एवं बारहवें के तीन-तीन, तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें और सोलहवें - इन चारों के क्रमशः दो-दो उद्देशक तथा शेष εअध्ययनों में से प्रत्येक के एक-एक उद्देशक । इस प्रकार कुल ८५ उद्देशकों के अनुसार उद्देशनकाल और समुद्देशनकाल भी ८५-८५ हैं । '
उपर्युक्त सभी जिनोक्त जीवादि पदार्थ जो द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से शाश्वत एवं पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से प्रशाश्वत हैं, उन सब का समस्त जीवों पर दया व उनके कल्याण की दृष्टि से श्राचारांग में समीचीन एवं समग्ररूपेण विवेचन किया गया है ।
आचारांग में गद्य और पद्य इन दोनों ही शैलियों में प्रतिपाद्य विषय का प्रतिपादन होने के कारण यह गद्य-पद्यात्मक अंगशास्त्र है। इसके त्रिष्टुभ, जगती आदि पद्य वैदिक पद्यों से पर्याप्त सादृश्य रखते हैं। वर्तमान में दोनों श्रुतस्कन्धरूप आचारांग का पद - परिमाण २५०० श्लोक प्रमारण है ।
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सत्त य छ चड चउरो, छ पंच प्रट्ठेव सत्त चउरो य ।
एक्कारा ति ति दो दो, सत्तेक्क एक्को य ॥
[ संग्रह गाथा ] गणना एवं छन्द की दृष्टि से चतुर्थ चरण में "सत्तेक्के क्क एक्को य" इस प्रकार का पाठ होना चाहिए।
सम्पादक
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पद के परिमाण का पता लगाने के लिये पूर्वाचार्यों ने पूरा प्रयास किया है । विशेषावश्यक भाष्य की गाथा १००३, अनुयोगद्वारवृत्ति, अगस्त्यसंह की दशवंकालिकचूरण, दशर्वकालिक की हारिभद्रया वृत्ति ( अध्ययन १ की गाथा १ ) तथा शीलांकाचार्य-कृत प्राचारांग वृत्ति ( तस्कन्ध १, सूत्र १ ) में पद शब्द पर प्रकाश डाला गया है। पर शास्त्रों में प्रयुक्त " पद" का युक्तिसंगत वास्तविक अर्थ क्या होना चाहिए इसका निर्णय प्रभी तक नहीं हो पाया है । प्राचार्य देवेन्द्रसूरि को पहले कर्मग्रन्थ की ७वीं गाथा के अन्तर्गत " पद" की व्याख्या करते समय लिखना पड़ा कि "जिससे पूरे अर्थ का बोध हो उसे "पद" माना गया है ।" दिगम्बरपरम्परा के मान्य ग्रन्थ "अंग पण्णत्ती" में एकादशांगी के कुल श्लोकों और पदों की जो संख्या दी है उसके अनुसार श्लोक संख्या में पदसंख्या का भाग लगाने पर ५१०८८४६२१ श्लोकों का एक पद बनता है। ऐसी स्थिति में द्वादशांगी में प्रयुक्त पद के परिमाण के सम्बन्ध में आज हमारे समक्ष ऐसी कोई सर्वमान्य परम्परा नहीं है जिससे कि पद का निश्चित स्वरूप जाना जा सके ।
-- सम्पादक
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