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जैन धर्म का मालिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य सु..रा.? दिगम्बर परम्परा के उपरोक्त दोनों विद्वानों ने जम्बुकुमार को संसार से विरक्ति होने के प्रकरण में चौथे और पांचवें गणधर के क्षत्रिय होने का जो उल्लेख किया है वह इस प्रकार है :
___ "एक दिन जम्बुकुमार ने अपने मन में विचार किया कि विपुल वैभव एवं यश की जो उन्हें प्राप्ति हुई है वह किस सुकृत के प्रताप से हुई है ? अपनी इस पान्तरिक जिज्ञासा को शान्त करने के लिये जम्बुकुमार ने एक मुनि को सविधि वन्दन करने के पश्चात् प्रश्न किया-भगवन् ! में यह जानना चाहता है कि वास्तव में मैं कौन हूँ, कहां से आया हूँ और जो कुछ मुझे प्राप्त हुआ है, वह किस पुण्य के फल से प्राप्त हुआ है ? माप दया कर मुझे मेरे पूर्व-भव का वृत्तान्त सुनाइये।
“सौधर्म नामक उन मुनि ने, जो कि धर्मोपदेशक थे, उत्तर दिया- वत्स! सुन, मैं तुझे पूर्व-भवों का वृतान्त सुनाता हूँ।'' इसी मगर देश के वर्षमान नामक ग्राम में किसी समय भवदत्त और भवदेव नामक दो सहोदर रहते थे। उन दोनों ने क्रमशः जैन श्रमण-दीक्षा ग्रहण की और बहुत वर्षों तक श्रमणाचार का पालन किया एवं दोनों भाई मृत्यु के पश्चात् सनत्कुमार स्वर्ग में देव रूप से उत्पन हुए । देवायु पूर्ण होने पर बड़े भाई भवदत्त का जीव महाविदेह क्षेत्र में वषदन्त नामक राजा के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम सागरचन्द्र रखा गया। छोटे भाई भवदेव का जीव देवलोक से च्युत हो महाविदेह क्षेत्र में महापदम चक्रवर्ती का शिवकुमार नामक पुत्र हुआ। सागरचन्द्र संयम ग्रहण कर कठोर तपश्चर्या करने लगा और शिवकुमार माता-पिता के प्रत्यधिक अनुरोध के कारण घर में रहते हुए भी श्रमणाचार का पालन एवं उग्र तपश्चरण करने लगा। अन्त में क्रमशः समाधिपूर्वक प्रायु पूर्ण कर वे दोनों ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुए।"
___ "दश सागर की देवाय पूर्ण होने पर बड़े भाई भवदत्त का जीव मगध देश के संवाहनपुर नामक नगर के राजा सुप्रतिष्ठ की रानी धर्मवती की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम सोधर्म रखा गया। सौधर्मकुमार क्रमशः सभी विद्याओं में निष्णात हुआ। एक दिन राजा सुप्रतिष्ठ अपने परिवार सहित भगवान् महावीर के दर्शन-वन्दन, उपदेश-श्रवण के लिये प्रभु के समवसरण में पहुँचा। भगवान् की भवरोग विनाशिनी देशना सुनकर राजा सुप्रतिष्ठ ने संसार से विरक्त हो प्रभु के पास निग्रंथ-दीक्षा ग्रहण कर ली। थोड़े ही दिनों में वह सुप्रतिष्ठ मुनि समस्त श्रुतशास्त्र के ज्ञाता बन गये और भगवान् महावीर ने उन्हें अपने चतुर्थ गणधर के पद पर नियुक्त किया।" 'प्रथोवाच मुनिर्नाम्ना, सौधर्मा धर्म देशकः । शृणु वत्स वदे तेऽथ, वृत्तान्तं पूर्वजन्मनः ।।
[जम्बूस्वामीचरितम् (पं० राजमल्ल) सर्ग १] २ [वही, सर्ग ६, श्लो० १८-२३] 3 दिवसः कतिभिभिक्षुः श्रुतपूर्णोऽभवन्मुनिः ।
गरणधरस्तुर्यो जातो वर्द्धमानजिनेशिनः ।।२८।। [ वही ]
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