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प्रथम पट्टधर]
बलिकाल : भार्य सुधर्मा ऐसी स्थिति में उपरिवरिणत तीन प्रमुख कारणों से चतुर्विध तीर्थ के समक्ष भगवान् महावीर का पट्टधर किसको नियुक्त किया जाय, इस प्रकार का कोई प्रश्न अथवा विवाद उत्पन्न होने जैसा प्रसंग ही उपस्थित नहीं हुमा। प्रतः भगवान महावीर के निर्वाण के दूसरे ही दिन चतुर्विध तीर्थ ने आर्य सुधर्मा को सर्वसम्मति से भगवान महावीर का सर्वसत्तासम्पन्न प्रथम पट्टधर, संघनायकप्राचार्य नियुक्त कर दिया। उसी दिन से आज तक सुधर्मा स्वामी की शिष्यपरम्परा चलती पा रही है।'
बाज जितने भी श्रमण एवं श्रमरिणयां विद्यमान हैं, वे सब मार्य सुधर्मा की शिष्य परम्परा के हैं। क्योंकि शेष सभी गणधरों ने निर्वाण प्राप्त करने से पहले ही अपने-अपने शिष्यमण्डल आर्य सुधर्मा को शिष्य रूप में समर्पित कर निर्वाण प्राप्त किया था।
भगवान् महावीर के प्रथम पट्टपर प्रार्य सुधर्मा ही क्यों ?
साधारण से साधारण और प्रबुद्ध से प्रबुद्ध व्यक्ति के मन में भी यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है कि श्रमण भगवान् महागीर के ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ शिष्य इन्द्रभूति गौतम की विद्यमानता में उनको छोड़ पंचम गरगधर आर्य सुधर्मा को भगवान् महावीर का पट्टधर क्यों बनाया गया? इन्द्रभूति ने तीर्थ-स्थापना काल से लेकर प्रभु के निर्वाण समय तक उनकी अहर्निश सेवा की। भगवान् के प्रति उनकी भक्ति एवं प्रीति भी अप्रतिम थी। फिर क्या कारण था कि इन्द्रभूति को भगवान् का उत्तराधिकारी नहीं बनाया गया ?
उत्तर साफ है कि उत्तराधिकारी अपने पूर्ववर्ती आचार्य प्रादि के अधिकार को आगे चलाने वाला होता है। यह जानी हुई बात है कि पट्टधर अपने पूर्ववर्ती प्राचार्य के प्रादेश, उपदेश और सिद्धान्तों को दृष्टि में रखकर उसका प्रचार-प्रसार करने के साथ-साथ अनुयायी समाज से उनकी प्राज्ञा का पालन करवाते हैं। किन्तु केवलज्ञानी स्वयं समस्त चराचर के पूर्ण ज्ञाता होने के कारण जो कुछ
' सोहम्मं मुणिनाहं, पढमं वंदे सुभत्ति संजुत्तो।
जस्सेसो परिवाउं, कप्परुक्खुव्व वित्परिउं ॥२॥ [हिमवन्त स्थविरावली] २ (क) जे इमे प्रज्जतारा समणा निग्गंधा विहरंति एए णं सव्वे प्रज्जसुहम्मस्स भणगारस्स
प्रावच्चिज्जा, अवसेसा गणहरा निरवच्चा वुच्छिन्ना [कल्पसूत्र स्थविरावली] (ख) परिणिवुया गणहरा जीवंते णायए णव जणाउ ।।६५८ [आवश्यक नियुक्ति] (ग) जीवति ज्ञातके -- ज्ञातकुलोत्पन्ने वीरे भगवति नव जनाः इन्द्रभूति सुधर्मस्वामिवर्जाः
परिनिर्वृत्ताः, इन्द्रभूति: सुधर्मश्च स्वामिनि वीरे निर्वृत परिनिर्वृत्तः, तथापि प्रथममिन्द्रभूति: पश्चात्सुधर्मा स्वामी यश्च यश्च कालं करोति, स स सुधर्मस्वामिनो गणं ददाति तेषां तथाभूत सन्तानप्रवृत्ति हेतुभूताचार्यसम्भवात्...।
[प्राव० नि०, गा० ६५८ की मलयगिरिवृत्ति]
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