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____ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [परीक्षा से पूर्व का जीवन उपर्युक्त सद्गुणों का प्रभाव एवं हिंसा, असत्य-भाषण, चौर्य, दुराचरण, क्रोध, मान, मद, मोह, मात्सर्य और लोभादि दुर्गुणोंका प्राचुर्य हो तो वह मर कर कमि-कीट-पतंग एवं नारकीय अथवा निगोद के रूप में भी उत्पन्न हो सकता है।
___ एक प्राणी जिस योनि में है, वह यदि उसी योनि में उत्पः कराने वाले कर्मो का बन्ध करे तो पुनः उस योनि में भी उत्पन्न हो सकता है, पर एकान्ततः यह मानना सत्य नहीं है कि जो प्रारणी वर्तमान में जिस योनि में है, वह सदा-सर्वदा के लिये निरंतर उसी योनि में उत्पन्न होता रहे ।"
प्रतिबोष और दीक्षा-पहरण श्रमण भगवान् महावीर की निर्दोष एवं प्रमोघ वाणी को सुन कर प्रार्य सुधर्मा के मन में प्रभु के प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा उत्पन्न हुई। उनके समस्त संशय छिन्नभिन्न हो गये, उनके हृदय की सभी ग्रंथियां स्वतः ही खुल गईं। त्रैलोक्यैकनाथ प्रभु महावीर के दर्शन और कृपाप्रसाद के फलस्वरूप प्रार्य सुधर्मा पर उपनिषद्कार की निम्नलिखित उक्ति पूर्णरूपेण घटित हो गई :
भिद्यते हृदयग्रंथिश्छिद्यते सर्वसंशयाः ।"
ज्ञानी सदगुरु की संगति हृदय की मोहजन्य गांठ का भेदन कर सकल संशयों का अंदन करती है । जगद्गुरु प्रभु महावीर की कृपा से प्रार्य सुधर्मा के अन्तर्मन में उद्भूत मानालोक जगमगा उठा और उन्हें अनिर्वचनीय प्रानन्द की उपलब्धि हुई।
उन्होंने भावविभोर हो :प्रभु के चरणों पर अपना सिर रखते हुए गद्गद् स्वर में कहा- "प्रभो! आपने मेरे अन्तस्तल में व्याप्त प्रज्ञानान्धकार को दूर कर दिव्य प्रालोक से मेरे हृदय को प्रकाशमान कर दिया है। में प्रापकी वीतराग वाणी में पूर्ण श्रद्धा और आस्था रखता हूँ। मै आपकी निर्दोष वाणी में पूर्ण प्रीति करता है। करुणाधन ! मापने मुझे सही दिशा और मेरे चरम लक्ष्य का बोध करा दिया है। मैं अपने चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आपके चरणों की शरण में श्रमरण-दीक्षा ग्रहण कर आजीबन अापकी सेवा करना चाहता है।"
इस प्रकार प्रार्य सुधर्मा की भरल, निर्लेप, मुमुक्षु एवं सत्योपासक वृत्ति का परिचय मिलता है । भगवान् महावीर के मुखारविन्द से सत्य का परिज्ञान होते ही उन्होंने अपनी चिरपरिपालित परम्परा, बड़े परिश्रम से अजित प्रतिष्ठा, शिष्यों और अनुयायियों के मोह आदि का परित्याग कर दिया और वे तत्काल श्रमरणदीक्षा ग्रहण करने के लिये तत्पर हो गये। ___इससे यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि प्रार्य सुधर्मा के हृदय में सत्य को जानने की प्रबल जिज्ञासा और सत्य को प्रात्मसात् करने की अनुपम तत्परता थी। उनकी बुद्धि सत्य को ग्रहण करने हेतु सदा उन्मुक्त-द्वार एवं तत्पर रहती थी। उन्नति के पथ पर अग्रसर होने से रोकने वाली सभी दुर्बलतामों, विचारों एवं वाधाओं को झटक कर उन्होंने अपने मन से दूर फेंक दिया।
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