________________
दीक्षा से पूर्व का जीवन) केवलिकोल : प्रार्य सुधर्मा __सोमिल ब्राह्मण द्वारा मध्यम पावा में यज्ञानुष्ठान के लिये मामन्त्रित मार्य सुधर्मा अन्य १० विद्वानों के साथ जिस समय यज्ञानुष्ठान कर रहे थे, उसी समय मध्यम. पावा नगरी के प्रानन्दोद्यान में भगवान् महावीर का समवसरण हुमा।
जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इन्द्रभूति तथा अग्निभूति गौतम भगवान् महावीर को शास्त्रार्थ में जीतने की अभिलाषा लिये और वायुभूति तथा प्रार्य व्यक्त अपनी-अपनी शंकाओं के समाधानार्थ प्रभु के समवसरण में अपने शिष्य-समूह के साथ क्रमशः गये और भगवान् महावीर द्वारा अपनी गूढ़ शंकामों का समुचित समाधान पा कर उनके चरणों में दीक्षित हो गये।
प्रार्य सुधर्मा ने जब यह सुना कि इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति और मार्य व्यक्त जैसे उच्चकोटि के विद्वान् अपने-अपने मन की शंकानों का समाधान पा कर भगवान् महावीर के पास श्रमणधर्म में दीक्षित हो गये हैं, तो उनके मन में भी उत्कट अभिलाषा उत्पन्न हुई कि क्यों न वे भी नर, नरेन्द्र, देवेन्द्रादि द्वारा पूजित सर्वज्ञ प्रभु महावीर से अपने मन में चिरकाल से संचित निगूढ़ शंका का समाधान कर लें। वे तत्काल अपने ५०० शिष्यों के साथ प्रभू के समवसरण में पहुंचे ।' उन्होंने श्रद्धावनत हो प्रभु के चरणों में नमन किया।
सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान महावीर ने नाम - गोत्रोच्चारणपूर्वक प्रार्य सुधर्मा को सम्बोधित करते हुए धनरव-गम्भीर स्वर में कहा - "प्रार्थ सुधर्मन् ! तुम्हारे मन में यह शंका है कि प्रत्येक जीव वर्तमान भव में मनुष्य, तिथंच आदि जिस गति में है, वह मरने के पश्चात् भावी भवों में भी क्या उसी गति में उसी प्रकार के शरीर में उत्पन्न होगा? अपनी इस शंका की पुष्टि में तुम मन ही मन यह युक्ति देते हो कि जिस प्रकार एक खेत में जो बोये जायं तो जौ और गेहूं बोये जायं तो गेंहूं पैदा होंगे। यह संभव नहीं कि जो बोने पर गेहूं उत्पन्न हो जायं प्रथवा गेहं बोने पर जो उत्पन्न हो जायं। सौम्य सुधर्मन् ! तुम्हारी यह शंका वस्तुतः समुचित नहीं है। क्योंकि प्रत्येक प्राणी त्रिकरण एवं त्रियोग से जिस प्रकार की अच्छी अथवा बुरी क्रियाएं करता है, उन्हीं कार्यों के अनुसार उसे भावी भवों में अच्छी अथवा बुरी गति, शरीर, सुख-दुःख, संपत्ति:विपत्ति, संयोगवियोगादि की प्राप्ति होती रहती है और कृतकर्मजन्य यह क्रम अजस्ररूपेण तब तक चलता रहता है जब तक कि वह आत्मा अपने-अच्छे-बुरे- सभी प्रकार के समस्त कर्मों का समूल नाश कर शुद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं हो जाता।
एक मनुष्य अपने वैराग्य, सदाचार, आर्जव, मार्दव आदि गुणों से मनुष्यमायु का बन्ध कर अगले जन्म में पुनः मानव-भव प्राप्त कर सकता है । यदि उस मनुष्य में त्याग-तप-दया मादि सद्गुणों का बाहुल्य हो तो वह देवायु का बन्ध कर, मरने पर देव रूप से उत्पन्न हो सकता है । परन्तु वही मनुष्य, यदि उसमें
ते पम्पइए सोङ, सुहम्मो मागन्या जिणसगासं । बच्चामि वं वंदामि, वंदित्ता पाणुवासामि ॥६१४।। [भाव नि०१]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org