________________
दीक्षा से पूर्व का जीवन ]
केवलिकाल : श्रायं सुषमा
५१
भी खोज करने पर कुछ प्रपुष्ट विवरण प्रकाश में प्राये हैं। शोधार्थियों की सुविधा और विद्वानों के विचार हेतु उन्हें यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।
पुरातत्ववेत्ता मुनि जिनविजयजी ने "जैन साहित्य संशोधक", रु. १, अंक ३ के परिशिष्ट में 'वीर वंशावलि अथवा तपागच्छ वृद्ध पट्टावलि' प्रकाशित की है। उसके पृष्ठ १-२ में श्रार्य सुधर्मा के श्रमरणजीवन से पूर्व का विवरण देते हुए लिखा गया है :
:
“१. सुधर्मा स्वामी
पछी श्री वीर पाटे पांचवां गणधर श्री सुधर्मा स्वामी पहले पाटे थया । तथा हि
कोल्लाग सन्निवेशे धम्मिल्ल नामा विप्र तेहनी स्त्री भद्दिला नामे । ते हरिद्रायण गोत्र थी उपनी । तेहनो पुत्र । उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में जन्म हुम्रो सुधर्मा नाम दीधु । अनुत्र में यौवनावस्था में वक्षस (वत्स ) गोत्र थकी उपनी एक कन्या परगावी । तेहसुं सांसारिक सुख भोगवतां एक पुत्री हुई। ते सुधर्मा चार वेद-वेदांग नो पाठी छे । तेहूने पासे पांच सये विद्यार्थी बाड़वसुत विद्याभ्यास ( २ - १ ) करे छे । पिरण ते सुधर्मा ना जिसने विषे एक महा संदेह छे । ते किस्यो ? जे जेहवो ते तेहवो । ते संदेह श्री वीरवचने निःसंदेह हुन । तिवारे पांच सय छात्र युक्त वर्ष ५० गृहस्थ पशुं भोगवी संसय छेदक श्री वीर हस्ते दीक्षा लीधी ।"
·इस प्रकार उपर्युक्त तपागच्छ वृद्ध पट्टावलि में दिये गये सुधर्मा स्वामी के गृहस्थ- जीवन संबंधी वृत्त में निम्नलिखित जो तीन बातों का उल्लेख किया गया है, वह अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं होता
:
१. प्रायं सुधर्मा की माता का हरिद्रायरण गोत्र होना ।
२. यौवनावस्था में प्रार्य सुधर्मा का वक्षस ( वत्स्य) गोत्र की कन्या के साथ विवाह होना । और
३. सुधर्मा की वत्स्य गोत्रीया पत्नी से एक पुत्री का जन्म होना ।
उपर्युक्त विवरण के अतिरिक्त लींबड़ी संघवी उपाश्रय के पूज्य श्री मोहन लालजी स्वामी के शिष्य स्वर्गीय मुनि श्री मणिलालजी महाराज द्वारा लिखित " श्री जैन धर्म नो प्राचीन संक्षिप्त इतिहास अने प्रभु वीर पट्टावली" नामक ग्रन्थ में प्रार्य सुधर्मा का प्रव्रजित होने से पूर्व का जो जीवन-परिचय दिया गया है उसमें तपागच्छ पट्टावली में उल्लिखित ऊपर दी हुई तीन बातों में से पहली को छोड़ कर शेष दो के उल्लेख के साथ दो और नये तथ्य दिये गये हैं ।
मुनि मणिलालजी ने लिखा है कि प्रार्य सुधर्मा ने वत्स गोत्रीया कन्या के साथ विवाह करने और उससे एक कन्या का जन्म होने के पश्चात् संसार से विरक्त हो संन्यास ग्रहरण किया और उन्हें कालान्तर में शंकराचार्य की सम्माननीय उपाधि से अलंकृत किया गया था ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org