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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [इनभूति का उपदेश १. तीर्थकर भगवान् को विश्राम देना एवं शिष्यों की योग्यता का बढ़ाना । २. श्रोतानों को विश्वास दिलाना कि गणधर भी तीर्थकर जैसा ही उपदेश
देते हैं एवं गुरु-शिष्य के वचनों में कोई विरोध नहीं है। ३. यह बताना कि भगवान् ने अर्थरूप वाणी फरमाई, उस वाणी को
गणधरों ने सूत्र रूप में अथित किया एवं गणधरों द्वारा सूत्र रूप में
ग्रथित भगवान् की उसी वारणी को वाचना में सुनाया जाता है।'
प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार जब भगवान् महावीर गणधरों को सद्यः. स्थापित चतुर्विध तीर्थ के संचालन की अनुमति प्रदान कर देवच्छंद में पधार गये तब प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् के सिंहासन के पास पादपीठ पर मासीन हो द्वितीय प्रहर में परिषद को उपदेश दिया ।'
__ "सेन प्रश्न" के अनुसार तीर्थस्थापना दिवस के अतिरिक्त भी सर्वदा द्वितीय पौरुषी में प्रथम या अन्य गणधर का व्याख्यान करना माना गया है।
. प्रागमकालीन परम्परा में कहीं ऐसा स्पष्ट निर्देश नहीं है कि तीर्थकर भगवान् प्रथम प्रहर में ही धर्मोपदेश करते हैं। प्रथम प्रहर का ही देशना का नियम माना जाय तो जहां प्रथम प्रहर के बाद ही भगवान् का पदार्पण हुमा होगा वहां उस दिन देशना नहीं हुई होगी। पर ऐसा आगमकालीन स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । संभव है उत्तरकालीन परम्परा में ऐसा माना गया हो। गणधर द्वारा द्वितीय प्रहर के धर्मोपदेश में जो 'खेद-विनोद' का हेतु प्रस्तुत किया गया है वहां अनन्तशक्ति सम्पन्न भगवान् के लिये खेद की संभावना विचारणीय है,। संभव है भगवान् से सुने हुए भावों को गणधर सूत्र रूप से फिर वहीं पर सुनाते हों । जैसा कि चूर्णिकार ने कहा है :"भगवता अत्थो भणितो, गणहरेहि गंथो को, वाइनो य इति ।"
[आवश्यकचूर्णि, पूर्वभाग, पृ० ३३४] . समवायांग सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान महावीर अपनी निरिणरात्रि में कल्याणफल विपाक एवं पापफल विपाक के क्रमशः ५५-५५ अध्ययनों का उपदेश देकर सिद्ध हए । इस तरह प्राचार्यों ने १६ प्रहर तक निरन्तर भगवान् महावीर द्वारा देशना देना मान्य किया है। इससे प्रमाणित होता है कि तीर्थकर प्रथम प्रहर में ही देशना देते हैं, ऐसा नियम नहीं है। ' भगवता प्रत्यो भरिणतो, गणहरेहिं गंथो को वाइमो य इति । [भाव. चु, पृ० ३३४] २ त्रिषष्टि०, पर्व १०, सर्ग ५, श्लो० १८४ ३ ज्येप्ठो अन्यो वा......
[१७५ प्रश्न, सेनं प्र०, ३] ४ (क) समरणे भगवं महावीरे अंतिम राइयंसि पणपनं प्रज्झयणाई कल्लागफल विवागाई पणपन्नं अज्झयरपाइं पावफल विवागाइं वागरित्ता सिद्धे. बुद्धे जावप्पहीणे।।
[समवायांग-समवाय ५५] (ख) जैन धर्म का मौलिक इतिहास-प्रथम भाग, पृ० ४७० Jain Education International
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