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जैन धर्म का मोलिक इतिहास - द्वितीय भाग | प्रथम पट्टधर विषयक
है कि भगवान् के निर्वारण के पश्चात् उनके प्रथम पट्टधर ग्रार्य सुधर्मा बने, न कि
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इन्द्रभूति गौतम ।
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दिगम्बर परम्परा का वह प्रतिप्राचीन ग्रन्थ मूलतः प्राकृत भाषा में था । वह तो विलुप्त हो चुका है परन्तु उसी प्राकृत भाषा के 'लोकविभाग' ग्रन्थ के आधार पर बना संस्कृत 'लोक विभाग' उपलब्ध होता है । संस्कृत 'लोकविभाग के कर्त्ता सिंहसूरपि ने मूल लोक विभाग का संस्कृत में ग्रनुद करते समय ग्रन्थ के प्रारम्भ में लिखा है :
लोकालोक विभागज्ञान्, भक्त्या स्तुत्वा जिनेश्वरान् । व्याख्यास्यामि समासेन, लोकतत्वमनेकधा ॥
अन्त में प्रशस्ति में लिखा है
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भव्येभ्यः सुरमानुषोरु सदसि श्री वर्द्धमानार्हता, यत्प्रोक्तं जगतो विधानमखिलं ज्ञातं सुधर्मादिभिः । ग्राचार्यावलिकागतं विरचितं तत् सिंहसूरर्षिरणा । भाषाया परिवर्तनेन निपुणैः सम्मानितं साधुभिः ।।
अर्थात् लोक और अलोक के विभागों को जानने वाले जिनेश्वरों की भक्तिसहित स्तुति कर के लोकतत्व का संक्षेप में व्याख्यान करता हूँ ।
अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है कि देवों और मनुष्यों की सभा में तीर्थंकर वर्द्धमान ने समस्त जगत् का विधान भव्यजनों के लिये कहा, जो सुधर्मा स्वामी आदि ने जाना और जो प्राचार्य परम्परा से आज तक चला आ रहा है, उसे सिंहसूर - ऋषि ने भाषा-परिवर्तन कर के विरचित किया, उसका निपुण साधुजनों सम्मान किया है |
प्रशस्ति के श्लोक में प्रयुक्त - "ज्ञातं सुधर्मादिभिः " प्रौर "प्राचार्यावलिकागतं”- इन दोनों पदों पर सूक्ष्म दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर इनका स्पष्टरूप से यही अर्थ निकलता है कि - 'सुधर्मा' आदि ने उसे सुना, सुधर्मा श्राचार्य ने अपने उत्तराधिकारी प्राचार्य को वह ज्ञान दिया और क्रमशः उनके उत्तराधिकारी प्राचार्य अपने-अपने उत्तराधिकारी प्राचार्यों को वह ज्ञान देते रहे। इस प्रकार आचार्य परम्परा से वह ज्ञान प्राज तक चला आ रहा है।
भगवान् महावीर से ज्ञान प्राप्त करने वालों के नामोल्लेख के समय प्रथम गणधर इन्द्रभूति गौतम का नामोल्लेख करने के स्थान पर सुधर्मा का नामोल्लेख किया जाना और " प्राचार्यावलिकागतं " - इस पद से पहले "ज्ञातं सुधर्मादिभि: "इस पद का प्रयोग वस्तुतः प्रत्येक विचारक को यह विश्वास करने के लिये प्रेरित करता है कि भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर प्राचार्य सुधर्मा स्वामी हुए, न कि इन्द्रभूति गौतम । उपरोक्त श्लोक के पदविन्यास से "लोकविभाग" के रचनाकार की यही भावाभिव्यक्ति स्पष्ट प्रतिध्वनित होती है कि महावीर के प्रथम पट्टधर
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