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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य सुषर्मा पूर्ण संविधान भी शनैः शनैः विस्मृति के गर्त में विलीन हो क्षीण होने लगा। परन्तु सुधर्मा स्वामी द्वारा द्वादशांगी के रूप में ग्रथित भगवान महावीर की वाणी से अनेक महापुरुषों ने अचिन्त्य-अपरिमेय शक्ति का संचय कर समय-समय पर क्रियोद्वार किया और प्रभु महावीर के धर्मसंघ की गौरव-गरिमा को समुज्ज्वल एवं अक्षुण्ण बनाये रखा।
प्रार्य सुषर्मा को विशिष्टता सभी गणधरों में चतुर्दश पूर्व के ज्ञान की समानता होने पर भी उनकी अपनी अलग-अलग विशिष्टताएं थीं। निरन्तर प्रभू-सेवा में रह कर शास्त्रीय विषयों की गम्भीर छानबीन करना इन्द्रभूति की विशिष्टता थी, अतः उन्हें जिस प्रकार प्रभु द्वारा श्रुततीर्थ की अनुज्ञा प्रदान की गई उसी प्रकार प्रार्य सुधर्मा में भी कोई विशिष्टता होनी चाहिये जिससे त्रिकालदर्शी भगवान महावीर ने उन्हें गणसंचालन की अनुज्ञा दी। हजारों साधुनों के गणों का व्यवस्थितरूपेण संचालन एवं परिपालन करना और प्रभु के निर्वाण पश्चात् संपूर्ण संघ को संगठित एवं सुशासित रखना कोई साधारण योग्यता की बात नहीं थी। प्रार्य सुधर्मा में संघ को सुदृढ़, सुसंगठित, सुशासित और सशक्त बनाये रखने की अपूर्व क्षमता थी। संभव है उनकी इसी विशिष्ट योग्यता के कारण भगवान् महावीर ने सब गणधरों को अपने-अपने गण सम्हलाते समय आर्य सुधर्मा के सबल कन्धों पर प्रवशिष्ट साधु-समुदाय के गण-संचालन का गुरुतर भार रखा। आवश्यक चूर्णिकार ने उपर्युक्त प्रसंग का निम्नलिखित शब्दों में वर्णन किया है :
........पच्छा सामी जस्स जत्तिप्रो गणो तस्स तत्तियं अणुजापति, पातीए सुहम्मं करेति, तस्स महल्लं आउयं, एत्तो तित्थं होहितित्ति । ........अज्ज सुहम्मस्स निसिरंतिगणं ।।
[आवश्यक चूरिण, पूर्वभाग, पृ० ३३७] .......ताहे गोयमसामीप्पमुहा एक्कारसवि गणहरा तीसी प्रोणता परिवाडीए ठायंति,.......पुव्वं तित्थं गोयमसामिस्स दव्वेहिं पज्जवेहि अरणुजाणा मित्ति........गणं च सुहम्म सामिस्स धुरे ठावेत्ता णं अणुजाणति ।"
[वही, पृ. ३६०] जन्म स्थानादि आर्य सुधर्मा का जन्म ईसा से ६०७ वर्ष पूर्व विदेह प्रदेश के कोल्लाग नामक ग्राम में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में हमा। यह एक अद्भुत संयोग की बात है कि भगवान् महावीर की तरह आर्य सुधर्मा का जन्म-नक्षत्र भी उत्तराफाल्गुनी और जन्मराशि कन्याराशि थी। जिस प्रकार पुण्य अथवा पाप-प्रकृतियों का बन्ध प्राणी द्वारा किये गये पुण्य अथवा. पापपूर्ण कार्यों में उसके अपने पौरुष के तारतम्य के अनुसार न्यनाधिक होता है, ठीक उसी प्रकार उन पुण्य या पापमयी प्रकृतियों के उदय के समय प्राणी को पूर्व में किये गये अपने कार्यों का शुभाशुभ
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