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इन्द्रभूति गौतम केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम .. प्रतापी पुत्र के जन्म का सूचक शुभ स्वप्न देखा । गर्भकाल की समाप्ति पर भाग्यवती स्थंडिला ब्राह्मणी ने एक महान तेजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया। ब्राह्मरंग-दम्पति ने अपने उस पुत्र का नाम इन्द्रभूति रखा।
कालान्तर में चामरी दासी का जीव भी पंचम स्वर्ग की आयु पूर्ण कर स्थंडिला के गर्भ में अवतरित हया। यथासमय स्थंडिला ने दूसरे तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम अग्निभूति (दूसरा नाम गार्ग्य) रखा गया।
तदनन्तर रंगिका दासी का जीव भी पंचम स्वर्ग की १० सागर की प्राय पूर्ण होने पर उसी शांडिल्य ब्राह्मण की दूसरी धर्मपत्नी केसरी नाम की ब्राह्मणी के गर्भ में पाया और गर्भकाल पूर्ण होने पर पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। उस सौम्य शिशु का नाम वायुभूति (दूसरा नाम भार्गव) रखा गया। दोनों मातानों और पिता शांडिल्य ने अपने परम भाग्यशाली तीनों पुत्रों का बड़े दुलार और प्यार के साथ पालन-पोषण किया।
शांडिल्य ने समय पर अपने तीनों पुत्रों की शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था की । तीनों भाइयों ने परिश्रमपूर्वक विविध शास्त्रों का अध्ययन किया और वे वेदविद्या के पारगामी विद्वान् बन गये ।
इस प्रकार वे ही विशालाक्षी, रंगिक़ा और चामरी के जीव-क्रमशः इन्द्रभूति अग्निभूति एवं वायुभूति-ये तीन गणधर कहलाये ।
रयधू और भट्टारकजी ने किस प्रामाणिकं आधार से इन्द्रभूति आदि तीन गरणधरों के इन पूर्वभवों का उल्लेख किया है यह ज्ञात नहीं होता,' क्योंकि दिगम्वर परम्परा के अन्य ग्रन्थ इस विषय में मौन हैं।
. भगवती सूत्र के. पूर्वोक्त उल्लेख के अनुसार तो भगवान् महावीर और इन्द्रभूति गौतम की पूर्वभव-परम्पग अनेक पूर्वभवों में एक दूसरे से सम्बन्धित और साथ-साथ होनी चाहिए। अपभ्रंश भाषा के कवि रयधू और भट्टारक धर्मचन्द्र द्वारा उल्लिखित इन्द्रभूति प्रादि तीनों गौतम बन्धुओं के ये पूर्वभव भगवती सूत्र के भावों से मेल नहीं खाते । विद्वज्जन इस विषय में विशेष रूप से प्राचीन साहित्य में तथ्य की गवेपणा करें, यह वांछनीय है।
प्रथम पट्टधर विषयक प्राचीन दिगम्बर मान्यता यद्यपि दिगम्बर परम्परा के प्रायः सभी मान्य ग्रन्थों में यह उल्लेख है कि भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन्द्रभूति गौतम ही भगवान महावीर के प्रथम पट्टधर प्राचार्य बने किन्तु दिगम्बर परम्परा के एक सबसे प्राचीन ग्रन्थ 'लोक विभाग' में श्वेताम्बर मान्यता की ही तरह इस बात का संकेत उपलब्ध होता ' ऐसा प्रतीत होता है कि संभवतः भट्टारक परंपरा के प्रसार के समय व्रतों के माहात्म्य को बहाचढ़ा कर जनता के ममक्ष रखने की दौड़ में "लन्धिविधानवन" को लोकप्रिय बनान की दृष्टि से इस कथा की कल्पना की गई हो।
-मम्पादक
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