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इन्द्रभूति गौतम]
केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम एवं वायुभूति के सात भवों का परिचय उपलब्ध होता है, पर उनमें से किसी एक भव में भी भगवान् महावीर के जीव के साथ उनका किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं बताया गया है।
पाठकों की जानकारी हेतु उस कथा-भाग का यहां सार प्रस्तुत किया जा रहा है :. एक बार भगवान् महावीर विभिन्न देशों के अनेक भव्यों का उद्धार करते हुए राजगृह नगर के विपुलाचल पर पधारे। वहां मगधाधिपति श्रेणिक ने सविधि वंदन के पश्चात् अत्यन्त विनीत एवं मधुर स्वर में त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर भगवान् महावीर से प्रश्न किया- "भगवन् ! आपके प्रमुख शिष्य एवं प्रथम गरणधर आर्य इन्द्रभूति गौतम ने ऐसी अद्भुत और अचिन्त्य आध्यात्मिक संपदा किस महान् सुकृत के फलस्वरूप प्राप्त की है ?"
भगवान महावीर ने महाराजा श्रेणिक के प्रश्न का उत्तर देते हए फरमाया - "श्रेणिक ! प्राणी पाप - प्रकृतियों के बन्ध से अवनति की ओर तथा पुण्य - प्रकृतियों के बन्ध से उन्नति की ओर अग्रसर होता है। यह इन्द्रभूति गौतम के पूर्वभवों से भलीभांति विदित हो जाता है।"
अति प्राचीन समय में काशी देश के महाराज विश्वलोचन एक बड़े प्रतापी राजा हए हैं। उनकी पटरानी का नाम विशालाक्षी था जो परम सुन्दरी पर स्वभाव से बड़ी चंचल एवं अजितेन्द्रिया थी। एकदा रात्रि के समय रंगिका
और चामरी नाम की अपनी दो दासियों के साथ रानी विशालाक्षी ने एक नाटक देखा । नाटक के शृगाररसपूर्ण उत्तेजक अभिनयों को देख कर विशालाक्षी की कामवासना इतने प्रचण्ड वेग से जागृत हो उठी कि वह स्वैरिणी की तरह स्वेच्छाविहार की भावना लिये राजमहलों से भाग निकलने को छटपटाने लगी। दोनों दामियों की दुरभिसंधि एवं सहायता से वह मध्यरात्रि में छल-छद्मपूर्वक महलों से भाग निकलने में सफल हुई। नगर से दूर जंगल में पहुंचने पर उन्होंने योगिनियों का रूप धारण किया और चोरी-छिपे काशी राज्य की सीमा पार . की। तदनन्तर वे तीनों योगिनियों का वेप धारण किये हुए विभिन्न ग्रामों एवं नगरों ग्रादि में उन्मन भाव मे काम-मेवन करती हई यथेच्छ विचरने लगीं। उधर महलों में गनी को न पा कर गजा विश्वलोचन बड़ा चिन्तित हमा और लग्जा, वियोग एवं शोक मे संतप्त हो कुछ ही दिनों पश्चात् मृत्यु को प्राप्त हुआ ।'
उधर योगिनिया के वेप में स्वच्छन्दतापूर्वक भटकती हुई वे तीनों प्रवन्ती देग में पहनो । एक दिन किमी ताम्वी मनि को नगर की ग्रोर नग्न रूप में प्राते दग्व व नीनो ऋद हो मनि को भला-बग मुनाने लगी। अन्तराय समझ कर मनि विना भिक्षा ग्रहगा किये ही लौट पहे। उन कामान्ध नीनों स्त्रियों ने जंगल
नसन पान नदियागप्रवीडित :... - गौतम चरित्र, अधिकार २, श्लो. १८५
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