________________
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग
[पूर्वभव म पूर्वभव में इन्द्रभूति गौतम कर्म के अनुसार अनन्तकाल से प्रत्येक प्राणी संसार में जन्म-मरण ग्रहण करता पा रहा है। इस सिद्धान्त के अनुसार इन्द्रभूति गौतम का जीव भी पूर्वभव में विविध गति, जाति और शरीरों को धारण करता आया था, इसमें कोई सन्देह नहीं। पर ऐसी उत्तम करणी करने वाला यह जीव पहले कौन था
और भगवान् महावीर से उनका पहले कहां-कहां और कैसा-कैसा सम्बन्ध रहा, इस सम्बन्ध में जिज्ञासा होनी सहज है।
श्वेताम्बर साहित्य में प्रागमकार इतना तो स्पष्टतः उल्लेख करते हैं कि भगवान् महावीर और गौतम का पहले अनेकों भवों का प्रेमसम्बन्ध रहा था। भगवती सूत्र में इस प्रकार का उल्लेख आता है कि एक बार इन्द्रभूति गौतम के द्वारा इस बात पर खेद प्रकट करने पर कि उनके समक्ष दीक्षित अनेक मुनियों ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया पर उनको स्वयं को केवलज्ञान की प्राप्ति किस कारण से नहीं हुई, श्रमण भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति को आश्वस्त करते हुए कहा -
"गौतम ! तेरा और मेरा अनेक भवों में प्रेमसम्बन्ध रहा है। तुम चिरकाल से मेरे साथ स्नेहसूत्र में बँधे हो। तुम चिरकाल से मेरे द्वारा प्रशंसित, परिचित, सेवित एवं मेरे अनुवर्ती रहे हो। कभी देव भव में, तो कभी मनुष्य भव में मेरे साथ रहे हो। यही नहीं, अब यहां से मरणानन्तर हम दोनों परस्पर तुल्य रूप वाले, भेदरहित, कभी न विछुड़ने वाले एवं सदा एक साथ रहने वाले मंगी-साथी बन जायेंगे।' अभी तक तुम्हारा मेरे प्रति प्रगाढ धर्मानुराग रहने के कारण तुम्हें केवलज्ञान की उपलब्धि नहीं हो पाई हैं किन्तु चिन्ता जैसी कोई बात नहीं है।" ...
भगवती मूत्र के उपरिवरिणत उल्लेखानुसार भगवान् महावीर के साथ इन्द्रभूति गौतम का अनेक भवों का सम्बन्ध होना प्रमाणित होता है। किन्तु भगवान महावीर के त्रिपृष्ठ वासुदेव के पूर्वभव में इन्द्रभूति गौतम के जीव का उनके सारथी के रूप में उनके साथ होने के अतिरिक्त अन्य किसी भव का श्वेताम्बर साहित्य में कहीं कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता।
दिगम्बर परम्परा के कवि 'रयधु' कृत अपभ्रश भापा के "महावीर चरित्र" और भट्टारक धर्मचन्द्रकृत “गौतम चरित्र" में इन्द्रभूति, अग्निभूति
रायगिहें जाव परिसा पडिगया गोयमादि । समणे भगवं महावीरे गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी- “चिरसंसिट्ठोसि मे गोयमा ! चिरसंयुतोसि मे गोयमा ! चिरपरिचितोसि में गोयमा ! चिरमिग्रोसि मे गोयमा ! चिगणगग्रोमि मे गोयमा ! चिराणुवत्तीमि म गोयमा ! अगातरं देवलोग अणंतरं मारगुम्माए भवे कि परं मरणकायस्म भेदा, इतो नृता दो वि तला रागट्ठा प्रविमेगमगणागापना भविम्मामा ।
[भगवती मूत्र, शतक १६, अशा ७]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org