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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग | भ०म० के निर्वाण पर
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प्रश्न रखूंगा ? प्रभो ! अव में किसको भदन्त एवं भगवन कह कर पुकारूंगा और मुझे अब प्रगाढ़ स्नेह एवं अनन्त श्रात्मीयता से श्रोतः प्रांत अमृत से भी अत्यंत मधुर वारणी में "गौतम !" इस सम्बोधन से कॉन सम्बोधित करेगा ?" "
"हा, हा ! करुणैकसिन्धो ! प्रापने यह क्या किया जो अपने सदा-सर्वदा के दास को अवसान की इस अन्तिम वेला में अपने से दूर भेज दिया ? प्रभो ! हठी बालक की तरह क्या में बलात् आपकी गोद में बैठने वाला था ? क्या मैं आपके केवलज्ञान में से कोई हिस्सा बंटा लेता ? क्या मुझे साथ ले जाने से मोक्ष में स्थान की प्रवकुण्ठा प्राने वाली थी और क्या मैं आपके लिये कोई भाररूप हो रहा था जो ग्राप दास को इस प्रकार असहाय छोड़ कर मोक्ष में पधार गये ?"
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इस प्रकार पूर्ण मनोयोग के साथ-साथ "वीर ! वीर ! का निख्तर उच्चारण एवं ध्यान करते-करते इन्द्रभूति स्वयं वीरमय हो गये, वीर की अनन्त वीतरागता का उद्गम उनके अन्तर में हुआ और उनकी उत्कट विचारधारा ने अपना प्रवाह पलटा । उन्हें अनुभव हुआ -
"अरे ! वीर तो परम वीतराग थे। वीतराग प्रभु में किसी के प्रति अनुराग नहीं होता, यह तथ्य मेरे परम दयालु प्रभु ने मुझे कितनी बार समझाया है । यह तो मेरा ही अपराध था कि मैंने इस तथ्य की ओर किंचितमात्र भी अपना उपयोग नहीं लगाया और एकपक्षीय अनुरागसागर में पूर्णतः निमग्न रहा । धिक्कार है मेरे इस एकपक्षीय राग को, एकपक्षीय स्नेह को । सचमुच इस प्रकार का एकांगीण स्नेह-राग ही शिवसुख की प्राप्ति में शैलाधिराज के समान सवल अवरोध है । अब मैं इस अनुराग को इस स्नेह को सदा-सर्वदा के लिये तिलांजलि देता हूँ । वस्तुतः मैं एकाकी है। न तो में स्वयं किसी का हूँ और न कोई मेरा ।"
इन्द्रभूति गौतम ने स्नेह की वज्रव खलानों को एक ही झटके में तोड़ डाला। वे उत्कट चिन्तन से तत्क्षरण उच्चतर ध्यान की परम उच्च सीढ़ी पर . पहुँचे और उन्हें निखिल विश्व की त्रिकालवर्ती सकल चराचर वस्तुओं के समस्त भावों को देखने-जानने वाले केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई ।
' प्रसरति मिथ्यात्वतमो, गर्जन्ति कुतीर्थिकौशिका प्रद्य । दुर्भिक्षडमरवरादि राक्षसाः प्रसारमेष्यन्ति ।। ग्रहग्रस्तनिशाकरमिव गगनं, दीपहीनमिव भवनम् । भरतमिदं गतशोमं त्वया विनाद्य प्रभो ! जज्ञे । कस्यांपिीडे प्ररणतः पदार्थान् पुनः पुनः प्रश्नपदी करोमि । कं वा भदन्तेति वदामि को वा, मां गौतमेत्याप्तगिराथ वक्ता ॥
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[ कल्पसुबोधिका ८ क्ष्वरण ]
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