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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [उच्चतम व्यक्तित्व वे मर्वाक्षर-मन्निपात जैमी विविध लब्धियों के धारक और महान् नेजस्वी थे। वे भगवान महावीर से न अति दूर न अनि ममीप ऊर्ध्वजान और अधोसिर हो बैठते थे, सब पोर मे अवरुद्ध अपने ध्यान को केवल प्रभु के चरणारविन्द में केन्द्रित किये हुए संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे । ' वे अतिशय ज्ञानी होकर भी परम गुरुभक्त और आदर्श शिष्य थे। .
उपासकदशासूत्र के अनुसार वे छट्ठ-छ? तप के निरन्तर पारणा करने वाले थे । २ अापका विनय इतना उच्चकोटि का था कि जब भी उन्हें कोई प्रश्न पूछना होता तो वे तत्परता से उठकर भगवान् के पास जाते और श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दना-नमस्कार करते और तदनन्तर मर्यादित क्षेत्र में सम्मुख बैठ कर सेवा करते हुए, विनय से प्रांजलियुक्त भगवान् से पूछते । ३ संक्षेप में कहा जाय तो वे "जाइसंपन्ने, कुलसम्पन्ने, वलसम्पन्ने, विरणयसंपन्ने, गाणसम्पन्ने, दंसणसंपन्ने, चरित्तसंपन्ने, प्रोयंसीतेयंसी जसंसी" आदि संसार के समस्त सर्वोच्च कोटि के गुणों के अक्षय भंडार थे। कितना उच्चकोटि का व्यक्तित्व था इन्द्रभूति गौतम का!
इन्द्रभूति द्वारा देवशर्मा को प्रतियोष - जब भगवान् महावीर ने अपना निर्वाण-काल निकट देखा तो उन्होंने अपने प्रति निस्सीम स्नेह व प्रगाढ़ राग रखने वाले गणधर इन्द्रभूति गौतम को अपने निरिण समय में अपने से दूर रखना आवश्यक समझ कर देवशर्मा नामक ब्राह्मण को प्रतिबोध देने हेतु एक गांव में भेज दिया। गुरु-प्राज्ञा पालन में अहर्निश तत्पर रहने वाले परम प्राज्ञाकारी इन्द्रभूति गौतम ने प्रभु-प्राज्ञा को शिरोधार्य कर नत्क्षगग देवशर्मा के ग्राम की ओर प्रस्थान कर दिया।
भद्रेश्वरसूरि ने कहावली में इस प्रकार का उल्लेख किया है कि भगवान् ने इन्द्रभूति गौतम को चम्पा नगरी के मार्गस्थ ग्राम में देवशर्मा को ' तेणं कालेणं तेणं समएणं समरणस्स भगवनो महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई णाम
अरणगारे गोयम गुत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए, वज्जरिसह-नारायसंघयरणे, करणयपुलयनिसहपम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, पोराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढसरीरे, संखित्तविउलतेउलेस्से, चोहसपुग्वी, चउनागोवगए, मव्वक्खरसन्निवाई समणस्स भगवनो महावीरस्स प्रदूरसामंते उड्ढजाणू अहोसिरे उभारणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पारणं भावमाणे विहरइ ।
[भगवती सूत्र, शतक १] २ छठें छद्रेणं अग्गिक्वित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पारणं भावेमाणे विहरई । 3 ना गं से भगवं गोयमे जायमड्ठे जायसंसए...''उठाए उट्टेइ, उठित्ता जेणेव समणे
भगवं महावीरे तेगेव उवागच्छदइ उवागच्छित्ता समरणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो पायाहिरणं पयाहिग करेड करेडता वंदइ नमसइ नमसइला नच्चासन्न नाइदूरे सुस्मूसमारणे नमसमारणे अभिमहे विग्गाएरणं पंजलिउडे पज्जुवासमारणे एवं वयासी ।
भगवती मूत्र, शतक १, उ० १]
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