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दिगम्बर-मान्यता] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम
भगवान् को देशना विषयक विगम्बर-मान्यता तीर्थकर भगवान की देशना-रूप दिव्य ध्वनि कब और कितने समय तक प्रकट होती है, इस सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा की यह मान्यता है कि तीर्थंकर भगवान् की दिव्य ध्वनि त्रिकाल में नवमहर्त तक और इसके अतिरिक्त गणधर, देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपण हेतु शेष समय में भी प्रकट होती है।
इन्द्रभूति का उच्चतम व्यक्तित्व व्यक्ति का महत्व धन, वैभव अथवा किसी उच्च पद से नहीं किन्तु उसके उच्च व्यक्तित्व से होता है । प्राकृति से भी व्यक्ति की महत्ता समझी जाती है पर कई बार इसमें भ्रान्ति भी हो जाती है। शास्त्र में कहा है कि कुछ व्यक्ति रूपमंपन्न होते हैं पर शीलसंपन्न नहीं। कुछ. व्यक्ति शीलवान-गुणवान् होकर भी रूपवान नहीं होते। परन्तु महामूनि इन्द्र, ति भव्य प्राकृति के साथ शांत-सौम्य प्रकृति के भी धनी थे । लोकोक्ति में कहा है :
"सुलभा प्राकृतिरंम्या, दुर्लभं हि गुणार्जनम् ।"
इन्द्रभूति गौतम इसके अपवाद थे। गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति का शरीर ऊंचाई में सात हाथ का, आकार समचतुरस्त्र-लक्षण युक्त, बल वज्रऋषभनाराचवन सा मजबूत, वर्ग तपाये हए कुन्दन अथवा पकमल सा गौर । इन्द्रभूति की भव्य और सुन्दर प्राकृति को देखकर मनुष्य तो क्या देव भी मोहित हो जाते थे। विशाल भाल और कमलपुष्प सम खिले नयनों की रमणीकता देख दर्शकजन के नयन अपलक निहारते ही रह जाते थे।
__ शरीर की तरह उनका अन्तर्मन भी अनुपम शान्ति का प्राकर था। प्रकाण्ड पाण्डित्य के साथ इन्द्रभूति के विमल प्राचार और तपस्तेज ने उनके जीवन को गतगुना चमका रखा था।
इन्द्रभूति के व्यक्तित्व का परिचय देते हुए भगवती और उपासकदशा मूत्र में कहा है - श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति अरणगार. उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप और महातप के धारण थे। घोर गुणी और घोर ब्रह्मचारी थे। शरीर से ममता-रहित, तप की साधना से प्राप्त तेजोलेश्या को गुप्त रखने वाले, ज्ञान की अपेक्षा से चतुर्दश पूर्वधारी और चार ज्ञान के धारक थे।
'पठादीए अक्सलियो, संमतिदय गणवमुहुतागि। हिस्सरदि बिरुवमाणो, दिव्यमुणी जाव जोयणयं ६०३|| सेसेसु समएम, गगहरदेविंदचक्कवट्टीणं । पण्हाणुरुवमत्थं, दिवमुरणी प्र सत्तभंगीहिं ।।१०४॥
[तिलोथपणती, महाधिकार ४]
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