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इनाभूति, सुवर्मा को विशिष्ट पद] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम । कर उनकी प्राशा में प्रागम-वाचना और साधु-समुदाय के प्राचार-पालन आदि की व्यवस्था इन दो गणधरों के आधीन रखी गई हो। इस दृष्टि से इन्द्रभूति. पौर मुषर्मा का काम भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रुत की रक्षा के लिये शिक्षा एवं साधु-समुदाय की व्यवस्था सम्हालना हो सकता है।
क्योंकि प्रागमप्रणेतामों में इन्द्रभूति.प्रमुख रहे हैं, इसीलिये उन्हें भगवान् द्वारा श्रत-तीर्थ का दायित्व सम्हलाना उचित लगता है। प्रागमों में भी जहां किसी विषय का भगवान् द्वारा निरूपण उपलब्ध होता है, वहां प्रायः गौतम को सम्बोधित कर के ही भगवान् ने अधिकांश निरूपण किये हैं। "ममयं गोयम् ! मा पमायए" की तरह "समयं सुहम्म मा पमायए' का उल्लेख कहीं भी उपलब्ध नहीं होता।
सुषर्मा को गणाधिनायक चुनने का अभिप्राय सुधर्मा द्वारा दश गरगधरों के माश्रित साधु-समुदाय को छोड़ कर अवशिष्ट साधु समूह को संयम-मार्ग में स्थिर करने का दायित्व सम्हलाना था। सुधर्मा से पूर्व निर्वाण प्राप्त करने वाले सभी गणधरों द्वारा अपने निर्वाणकाल से पूर्व अपने-अपने गण सुधर्मा को सम्हलाना इस तथ्य की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिये अत्यन्त प्रबल और पुष्ट प्रमाण है।
जैन वाङ्मय में इस प्रकार के स्पष्ट उल्लेख मिलते हैं कि सुधर्मा की अपेक्षा शेष गरगषर अल्पायु थे और वे अपने पीछे अपने-अपने गण की व्यवस्था सम्हालने का काम सुधर्मा को सौंप कर सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त हुए।
इस तरह चूणिमादि में कही गई इन्द्रभूति के लिये तीर्थ की अनुज्ञा और सुषर्मा के लिये गण की अनुशा वस्तुतः संगत हो सकती है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि संघ में इन्द्रभूति और सुधर्मा को क्रमशः तीर्थनायक और गणाधिनायक नियुक्त कर भगवान् महावीर संघ-संचालन से पूर्णरूपेण विरत हो गये ।
देशना के पश्चात इन्नभूति का उपदेश , मावश्यक चूणि प्रादि ग्रन्थों के अनुसार पौरुषी के पश्चात् तीर्थकर भगवान् के उठ जाने पर प्रभू के सिंहासन के नीचे पादपीठ पर यासीन होकर गौतमस्वामी अथवा अन्य गणधर धर्मोपदेश करते थे।'
तीर्थकर भगवान् ही द्वितीय प्रहर में भी धर्मदेशना क्यों नहीं करते इस प्रकार के प्रश्न के उत्तर में प्राचीन प्राचार्यों ने भगवान् की देशना के पश्चात् मुख्य गणधर अथवा अन्य गणषरों द्वारा द्वितीय प्रहर में उपदेश दिये जाने के निम्नलिखित तीन प्रयोजन बताये हैं :' (क) तित्वगरो पदमपोल्सीए सम्म ताप कहेति जाव पढमपोरुसी उग्घाडवेला ।।
[भाव. चूरिण, भाग १, पृ० ३३२] (ख) उपरि पोरसीए उठिते तित्वकरे गोयमसामी अन्नो वा गणहरो बितीय पोम्मीए धम्म कहेति ।
[वही, पृ. ३३३
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