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की महत्ता]
केवलिकाल : इंद्रभूति गौतम "..."मध्यमा नाम नगरी, तत्र सोमिलार्यों नाम ब्राह्मणः, स यज्ञं यष्ट्रमुद्यतः, तत्र चैकादशोपाध्यायाः खल्वागताः, ते च चरमशरीरा भवान्तरोपार्जितगणधरलब्धयश्च, तान् विज्ञाय......."मध्यमनगर्यां महसेनवनोद्यानं संप्राप्तः।
[प्रावश्यक मलय । प्रवचनसारोदार] विक्रम सं० ११३६ में विरचित "महावीरवरियं" नामक ग्रन्थ में गुणचन्द्रगरिण ने भगवान महावीर के ११ गणधरों द्वारा अपने-अपने पूर्वजन्म में गणधर-पद की अवाप्ति के योग्य की गई साधना का निम्नलिखित शब्दों में वर्णन किया है -
__ "ते हि या पुन्वभवभत्थसमत्थपरमत्थसत्थवित्थारवियक्खरणत्तणेरण तक्कालुप्पन्नपन्नाइमयमुव्वहंतेहिं तयणुसारेण विरइयाई दुवालसअंगाई।"
[महावीर चरियं पृष्ठ २५७] जैन सिद्धान्त में कर्मवाद को प्रमुख एवं महत्वपूर्ण स्थान है और यह एक निर्विवाद सत्य है कि प्रत्येक प्राणी जिस जिस प्रकार के कर्म करता है उन्हीं कर्मों के अनुसार वह संसार में सामान्य अथवा विशिष्ट स्थान, स्थिति एवं सत्ता प्राप्त करता है। तदनुसार तीर्थकर पद की प्राप्ति के लिये साधक को जिस प्रकार की कठोर साधना के दौर से गुजरना पड़ता है उसी प्रकार निश्चित रूप से तीर्थकर पद के पश्चात् सर्वोच्च गरिमापूर्ण पद की प्राप्ति के लिये भी साधक को उससे कुछ ही कम कठोर साधना की कसौटी को पार करना होगा। भद्रेश्वरसूरि ने गणधर ऋषभसेन के लिये जो "पुन्वभवनिबद्ध गणहरनामगो" का विशेषण प्रयुक्त किया है, इससे पूर्वकाल में प्रख्यात पर पश्चाद्वर्ती काल में विलुप्त एकं परम्परा का आभास होता है कि तीर्थंकरों के जो गराधर होते हैं वे अपने पूर्वभव . में एक विशिष्ट प्रकार की उच्चतम साधना से गगधर नामकर्म का उपार्जन कर लेते हैं।
गण और गरगघर .. __ एक ही प्रकार की वाचना वाले साधु-समुदाय को गण और उस साधु. समुदाय की व्यवस्था का संचालन करने वाले मुनि को गणधर कहा गया है।
श्रमरण भगवान् महावीर के ११ प्रमुख शिष्यों ने प्रभु के मुख से 'त्रिपदी' सुन कर तीन निषद्याओं में चौदह पूर्वो की रचना की और वे गणधर कहलाये । आवश्यक रिण में बतलाया गया है कि गौतम स्वामी ने किस तरह 'त्रिपदी' का ज्ञान ग्रहण किया। वहां कहा गया है कि तीन निषद्याओं से गणधरों ने १४ पूर्वो की रचना की । 'निषद्या' का अर्थ वंदन करके पूछना लिखा है । 'उत्पाद' आदि प्रत्येक पद पर गणधर पृच्छा करते हैं और प्रभु से उत्तर सुन कर सूत्रों की रचना करते हैं।' 'तं. कहं गहितं गोयम सामिणा ? तिहिं निसेज्जाहिं चोट्स पुव्वाणि उप्पादितारिण ।
'निसेज्जा" णाम परिणवतिऊण जा पुच्छा...."ते य ताणि पुच्छिऊंग एगतमं ते सुत्तं करेति, जारिसं जहा भरिणतं ।
[मावश्यक चरिण, पूर्वभाग, पत्र ३७०)
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