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परंपरामों का समन्वय] केवलिकाल': इन्द्रभूति गौतम
__इन्द्र ने अवधिशान से दिव्यध्वनि प्रस्फुटित न होने का कारण जाना और वह इन्द्रभूति गौतम को लेने के लिए वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर उनके पास पहुंचा। शक्र युक्तिपूर्वक गौतम को भगवान् के पास ले आया।
.वृद्ध - ब्राह्मण - वेषधारी इन्द्र द्वारा पूछे गये श्लोक का अर्थ समझ में न माने, मानस्तम्भ को देखते ही अपने मान के तत्काल विगलित हो जाने तथा प्रभू के अलौकिक प्राभासम्पन्न, त्रैलोक्य विमोहक दिव्य तेजोमय स्वरूप को देखने के कारण इन्द्रभूति प्रतिबुद्ध हुए और प्रभुचरणों में दीक्षित हो गये।
६६ दिन पश्चात् ही इन्द्रभूति के दीक्षित होने की मान्यता को अभिव्यक्त करना यदि मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र भट्टारक को अभीष्ट होता तो वे "याममात्रे व्यतिक्रान्ते" पद का प्रयोग नहीं करते। संभव है उनके समक्ष एकादशी के दिन इन्द्रभूति के दीक्षित होने की समाज में मान्य कोई प्राचीन परम्परा रही हो।
इस प्रकार दोनों परम्पराओं में समन्वय प्राप्त होता है। समन्वयप्रेमी विद्वान् इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करें।
___गरगषर-पद प्रदान की विधि वर्तमान काल में प्राचार्यादि पद प्रदान के अवसर पर जिस प्रकार कुछ विधि-विधान और मंगल उत्सव होते हैं उसी तरह शास्त्र में तीर्थंकर भगवान द्वारा वासक्षेपादि किसी विशेष विधिपूर्वक गणधर नियुक्त करने का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। संभव है त्रिपदी-ज्ञान के पश्चात् तीर्थकर भगवान् विशिष्ट योग्यता वाले मुनियों को चतुर्विध संघ के समक्ष गणधर रूप से घोषित करते हों और उपस्थित चतुर्विध संघ एवं देव-देवी समूह हर्षध्वनिपूर्वक मंगल-महोत्सव मनाकर अभिनन्दन तथा अनुमोदन अभिव्यक्त करते हों।
- आवश्यक चूरिण, महावीर चरित्र और त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र में इस प्रकार का उल्लेख है कि इन्द्रभूति आदि ग्यारहों गणधर प्रभु महावीर के सम्मुख कुछ झुक कर परिपाटी से खड़े हो गये। कुछ क्षण के लिए देवों ने वाचनिनाद बंद किये । उस समय जगद्गुरु प्रभू महावीर ने सर्वप्रथम इन्द्रभूति गौतम को लक्ष्य कर यह कहते हुए कि "मैं तुम्हें तीर्थ की अनुज्ञा देता हूं" - इन्द्रभूति के सिर पर स्वयं के करकमलों से सौगन्धिक रत्नचूर्ण डाला । तदनन्तर प्रभु ने क्रमशः अन्य सब गणधरों के सिर पर भी उसी प्रकार चूर्ण डाला। तत्पश्चात् प्रभु महावीर ने अपने पंचम गणधर आर्य सुधर्मा को चिरंजीवी समझ कर सब गरगधरों के मागे खड़ा किया और श्रीमुख से फरमाया- "मैं तुम्हें धुरी के स्थान पर रख कर गण की अनुज्ञा देता हूं।""
. (क) प्रावश्यक चूणि पृष्ठ ३७०
(ख) त्रिषष्टि श० पु. १०, पर्व १० सर्ग ५, श्लोक १७६-८० (ग) महावीर चरित्र (गुणचन्द्रगणि) पत्र २५८ (१)
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