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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [ीक्षा पर दोनों
दीक्षा पर दोनों परम्परामों का समन्वय इन्द्रभूति गौतम की श्रमण-दीक्षा को लेकर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में मतभेद है। श्वेताम्बर परम्परा प्रभु महावीर की केवल ज्ञानोपलब्धि के दूसरे ही दिन इन्द्रभूति की दीक्षा मानती है; जबकि दिगम्बर परम्परा ६६ दिन बाद ।
भगवान् महावीर और गौतम गणधरं को समान रूप से आदरणीय मान कर भी दोनों परम्पराएं सामान्य मतभेद के कारण एक प्रकार से कुछ अलग, कुछ दूर सी दृष्टिगोचर होती हैं।
श्वेताम्बर - दिगम्बर परम्परा के इस मंतव्यभेद के कारण धर्मशासन के संचालन में एकरूपता नहीं रही। पर यह प्रसन्नता की बात है कि हमें दोनों परम्पराओं में समन्वय का एक आधार मिल रहा है।
दिगम्बर परम्परा के मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र कृत 'गौतमचरित्र' में भगवान् महावीर के जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण और धर्मसंघ प्रादि विषयों में श्वेताम्बर - दिगम्बर, दोनों परम्पराओं में कोई खास मतभेद नहीं है। केवल गर्भापहरण, कुमारत्व, तीर्थस्थापन जैसे कुछ प्रसंगों में सामान्य परम्परा-भेद है, जो प्रायः प्रसंग को नहीं समझने अथवा अर्थभेद की दृष्टि से उत्पन्न हुमा प्रतीत होता है। समन्वय दृष्टि से विचार करने पर कई विषयों के हल निकम आते हैं। उदाहरण के तौर पर 'कुमार' का अर्थ अविवाहित की तरह अनभिषिक्त भी मान लिया जाय तो समन्वय हो सकता है।
वैसे श्रमण भगवान् महावीर को केवलज्ञान होने के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परानुसार वैशाख शुक्ला ११ को और दिगम्बर परम्परा के अनुसार श्रावण कृष्णा १ (प्रतिपदा) को तीर्थस्थापना और गौतमादि की दीक्षा मानी गई है; पर उसका समन्वय भी प्राप्त होता है। .
प्रायः सभी दिगम्बर ग्रन्थों में प्रभु को केवलज्ञान की प्राप्ति के ६६ डिन पश्चात् श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को इन्द्रभूति आदि की दीक्षा का होना माना महा है; जबकि मण्डलाचार्य धर्मचन्द्र कृत 'गौतमचरित्र' में एक नवीन समन्वयकारी तथ्य दृष्टिगोचर होता है।
गौतमचरित्र में लिखा है :"ऋजुकूला नदी के तट पर स्थित जभक नामक ग्राम के पास शालवृक्ष के नीचे शिला पर विराजमान भगवान महावीर को वैशाख शुक्ला १०के दिन सायंकाल की वेला में केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इन्द्र की प्राज्ञा के तत्काल कुबेर द्वारा समवसरण की रचना की गई। भगवान् महावीर सिंहासन पर विराजमान हुए किन्तु याममात्र अर्थात् तीन घण्टे व्यतीत
हो जाने पर भी प्रभु की दिव्यध्वनि प्रकट नहीं हुई।'' ' याममात्र व्यतिक्रान्ते, सिंहासनप्रसंस्थिते । अथ श्री वीरनाथस्य, नाभवद् ध्वनि निर्गमः ।।७२॥
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