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11 11: नाला शतहास-द्वताय भाग
[प्रवज्या त्मक स्वभाव को जानने वाला प्रबुद्धचेता, ज्ञानवान् व्यक्ति समस्त तत्त्वों की उत्पाद - व्यय अवस्था में हर्ष-विषाद से परे रह कर उनके ध्रौव्य स्वभाव का विचार कर तटस्थ रहता हुआ प्रात्मकल्याण में निरत रहता है । ___ सरल, निर्मल और तीक्ष्ण बुद्धि के कारण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य इन्द्रभृति गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर की विशिष्ट ३५ अतिशययुक्त अमोघ वाणी के प्रभाव से अपने अन्तर में अनिर्वचनीय दिव्य ज्ञानालोक का अनुभव किया।
उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक त्रिपदी के रूप में समस्त विश्व के त्रिकालवर्ती संपूर्ण ज्ञान-विज्ञान को कुन्जी प्राप्त कर वेद-वेदांग के पारंगत विद्वान् इन्द्रभूति गौतम आदि के अन्तर में रंधे हुए ज्ञान के समस्त स्रोत अजस्ररूपेण फूट पड़े और ज्ञान का अथाह सागर उनके हृदयों में हिलोरें लेने लगा। उनके हृदय की समस्त कुंठाए, रिक्तताएं, शंकाएं, अनिश्चितताएं एवं सभी प्रकार की कमियां क्षण भर में ही दूर हो गई। उन्होंने अनुभव किया कि अज्ञान के एक घने काले प्रावरण के हट जाने के कारण उनके अन्तर में दिव्य तेजोमय प्रकाशपुंज ज्ञान का सहस्ररश्मि आलोक जगमगाने लगा है।
___ तीर्थंकर भगवान् महावीर की अतिशययुक्त दिव्य वाणी के प्रभाव से तथा पूर्वजन्म में कृत उत्कट साधना के परिणामस्वरूप इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारहों सद्यःप्रवजित विद्वानों के श्रुतज्ञानावरण कर्म का तत्क्षण विशिष्ट क्षयोपशम हुआ और वे उसी समय समग्र श्रुतज्ञानसागर के विशिष्ट वेत्ता बन गये। उन्होंने सर्वप्रथम चौदह पूर्वो की रचना की, जो इस प्रकार हैं : १. उत्पादपूर्व
८. कर्मप्रवाद पूर्व २. अग्रायणी पूर्व
६. प्रत्याख्यान पूर्व ३. वीर्यप्रवाद पूर्व
१०. विद्यानप्रवाद पूर्व ४. अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व ११. कल्याणवाद पूर्व ५. ज्ञानप्रवाद पूर्व
१२. प्रारणावाय पूर्व ६. सत्यप्रवाद पूर्व
१३. क्रियाविशाल पूर्व ७. प्रात्मप्रवाद पूर्व
१४. लोकविन्दुसार पूर्व अतिविशाल चौदह पूर्वो की रचना आचारांगादि द्वादशांगी से. पूर्व की गई, अतः इन्हें पूर्वो के नाम से अभिहित किया गया।'
चौदह पूर्वो की रचना के पश्चात् अंगशास्त्रों की रचना की गई। ' (क) जम्हा तित्यगरो तित्थपवत्तण काले गणधराणं सव्वमुत्ताधारत्तणतो पुग्वं पुम्वगय
सुत्तत्यं भासइ तम्हा पुन्वत्ति भणिया;... [नन्दी - हारिभद्रीया वृति पृ० १०७] (ख) सूषितानि गणधररंगेभ्यः पूर्वमेव यत् । . पूर्वाणीत्यभिधीयते, तेनंतानि चतुर्दश ।।१७१॥
[त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पवं १०, सगं ५]
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