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जैन धर्म का मौलिक इतिहास- द्वितीय भाग
प्रव्रज्या
शुक्ला ११ के दिन स्वयं के श्रीमुख से सर्वविरति श्रमरण- दीक्षा श्रर्थात् पंच महाव्रतों की भागवती दीक्षा प्रदान की ।
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प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने "त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र" में उल्लेख किया है कि इन्द्रभूति यादि श्रमरणों को वस्त्र, पात्र, उपकरणादि कुबेर द्वारा प्रदान किये गये। उन्होंने धर्मोपकररण ग्रहरण करने की प्रावश्यकता पर भी प्रकाश डाला है ।' अपने ५०० शिष्यों सहित, श्रमण भगवान् महावीर के पास इन्द्रभूति के प्रजित होने का संवाद सुनकर क्रमशः अग्निभूति, वायुभूति, प्रार्य व्यक्त, श्रार्य सुधर्मा प्रत्येक अपने पांच-पांच सौ शिष्यों, मण्डित तथा मौर्यपुत्र अपने साढ़े तीन तीन सौ शिष्यों और अकम्पित, अचल भ्राता, मैतार्य एवं श्रार्य प्रभास अपने तीन-तीन सौ शिष्यों के साथ श्रमरण भगवान् महावीर के समवसरण में आये और अपने मनोगत संशयों का भगवान् महावीर द्वारा पूर्णरूपेण समाधान पाकर अपने-अपने शिष्यमण्डल संहित श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंडित होकर विधिवत् निर्ग्रन्थ बन गये ।
ग्रनेक आचार्यों ने उल्लेख किया है कि गरणधरों की दीक्षा के समय देवगरण ने पंच- दिव्यों की वर्षा कर अपनी प्रसन्नता एवं धर्म की महिमा प्रकट की । २
इस प्रकार एक ही देशना में वेद-वेदान्तों के विख्यात ज्ञाता ग्यारह विद्वान् प्राचार्यों और उनके ४४०० शिष्यों ने शाश्वत सत्य को हृदयंगम कराने वाले भगवान् महावीर के परम तात्त्विक उपदेश से धर्म के सत्य स्वरूप को पहिचान कर प्रभु के पास श्रमणदीक्षा ग्रहण की ।
साधु साध्वी, श्रावक और श्राविका रूप चतुविध तीर्थ की स्थापना के अनन्तर भगवान् महावीर ने इन्द्रभूति गौतम को श्रग्निभूति आदि अपने १० प्रमुख शिष्यों के साथ उत्पाद ( उप्पन्नेइ वा ), व्यय ( विगमेइ वा ) और धोव्य
१ (क) उपनीतं कुबेरे धर्मोपकरणं ततः ।
त्यक्तसंगोऽप्याददानो गौतमोऽथेत्यचिन्तयत् ॥६४॥ निरवद्यव्रतत्राणे, यदेतदुपयुज्यते ।
वस्त्रपात्रादिकं ग्राह्यं धर्मोपकरणं हि तत् ॥६५॥
छद्मस्थैरिह पजीवनिकाययतनापरः । सम्यक् प्राणिदया कतु", शक्येत कथमन्यथा ॥ ८६ ॥ (ख) जलज्वलनवायूर्वी तरुत्रसतया बहून् ।
जीवांस्त्रातुं कथमलं, धर्मोपकरणं विना ॥९१॥ इन्द्रभूतिविभाव्यंवं, शिष्याणां पंचभिः शतैः । समं जग्राह धर्मोपकरणं त्रिदशापितम् ||१३||
[त्रिपटि श० पु० च०, पर्व १०, सगं ५ ]
२ प्रावश्यक चूरिण, त्रिपष्टि श. पु. च., महावीर चरित्र प्रादि ।
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