________________
२३
हृदय-परिवर्तन] . केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम कारण इन्द्रभूति गौतम ने श्रमरण भगवान् महावीर द्वारा परम सत्य का बोध होते ही तत्क्षरण बिना किसी प्रकार की हिचक के सहर्ष अपना सर्वस्व श्रमण भगवान् महावीर के चरणों में समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने समाज में अर्जित उज्वल यश, धार्मिक जगत् एवं विद्वत्समाज में वर्षों के अथक प्रयास से अजित अपनी प्रतिष्ठा और शिष्यसंघ के हृदयों में प्रोत:प्रोत अपने प्रति प्रगाढ़ श्रद्धा, उत्कट निष्ठा व सर्वोच्च समादर आदि की किंचित्मात्र भी चिन्ता किये बिना उन्होंने प्रभु-चरणों में प्रवजित होने का दृढ़ संकल्प कर लिया। . उन्होंने सांजलि शीश झुका कर प्रभु से प्रार्थना भरे स्वर में कहा-"प्रभो ! मुझे आपके चरणों में पूर्ण आस्था है। मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है कि आपके द्वारा बताये गये प्रशस्त मार्ग का अवलम्बन करने पर ही प्राणी सब प्रकार के दुःखों पौर बन्धनों से विनिर्मुक्त हो अपने चरम एवं परम लक्ष्य शिवपद को प्राप्त कर सकता है। मैं अब आजीवन आपके चरणों की शरण में रहना चाहता है, यतः आप मुझे अपने परम कल्याणकारीधर्म में श्रमण-दीक्षा प्रदान कर कृतार्थ कीजिये।"
शिष्यमंडल सहित प्रव्रज्या परम दयालु प्रभु महावीर ने "अहासुहं देवाणुपिया !" इस मुधासिक्त सुमधुर वाक्य से इन्द्रभूति को यथेप्सित सुखद कार्य करने की अनुजा प्रदान की।
तदनन्तर इन्द्रभूति गौतम ने अपने ५०० शिष्यों को सम्बोधित करते हुए शान्त, सहज, सरल एवं गम्भीर स्वर में कहा- "अायुष्मन् अन्तेवासियो ! मुझे प्रभूकृपा से वास्तविक सत्य का बोध हा गया है। मैं अव सर्वज्ञ सर्वदर्शी श्रमरण भगवान् महावीर से श्रमण-दीक्षा अंगीकार कर शिष्यरूपेण इनकी शरण ग्रहण करना चाहता है। अतः अब आप लोग अपनी-अपनी इच्छानुसार जैसे आपको अच्छा लगे, वही कर सकते हैं।"
इस पर इन्द्रभूति गौतम के ५०० शिष्यों ने एक स्वर में कहा-"परम श्रद्धास्पद गुरुदेव ! हमारी आन्तरिक प्रगाढ़ श्रद्धा के एकमात्र केन्द्रविन्दु आप जैसे महान् प्राचार्य जब भगवान महावीर के पास शिष्यभाव से दीक्षित हो रहे हैं तो हम लोग आपको छोड़ कर अन्यत्र कहाँ और क्यों जायं? हम सब लोग भी आपके चरणचिन्हों पर चलते हुए आपकी एवं प्रभु की सेवा करते हुए अपना प्रात्मकल्याण करेंगे।"
श्रमण-दीक्षा ग्रहण करने हेतु समुद्यत इन्द्रभूति गौतम के अन्तर्मन की पुकार और प्रार्थना को सुन कर भगवान महावीर ने उन्हें अपना भावी प्रथम गणधर जान कर प्रमुख शिष्य के रूप में ईसा पूर्व ५५७ एवं विक्रमपूर्व ५०० वैशाख ' एत्य संपतो संबुद्धो य भणइ पंच खंडितसते, एस सम्वन्नु ग्रहं पव्वयामि तुम्भे जहिनियं करेहि। ते भरणन्ति जदि तुन्भे एरिसगा होता पव्वयह तो मम्हे का पन्ना गतिनि: एवं सो पंचसयपरिवारो पबतितो। - [मावश्यक बुरिण, पृ. ३३६]
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org