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प्रवज्या ]
केबलिकाम: इन्द्रभूति गौतम (धुवेइ वा) इस त्रिपदी का सविस्तार उपदेश देकर उन्हें संसार के समस्त तत्वों के उत्पन्न, नष्ट एवं स्थिर रहने के स्वभाव तथा स्वरूप का सम्यक्रूपेण सम्पूर्ण ज्ञान करवाया।
भगवान् महावीर ने फरमाया- "उत्पाद - व्यय-ध्रौव्यात्मक सार्वभौम .. सिद्धान्त संसार के समस्त जड़-चेतन तत्त्वों पर परिघटित होता है। संसार के समस्त तत्त्व उत्पाद- व्यय - ध्रौव्यात्मक स्वभाव वाले हैं।"
त्रिपदी का साररूप में अर्थ बताते हुए भगवान् महावीर ने फरमाया
"उत्पाद - स्वजात्यपरित्यागेन भावान्तरावाप्तिरुत्पादः ।" अर्थात् किसी द्रव्य द्वारा अपने मूल स्वरूप का परित्याग किये बिना दूसरे रूपान्तर का ग्रहण कर लेना उस द्रव्य का 'उत्पाद' स्वभाव कहा जाता है ।
___ "व्यय-तथा पूर्वभावविगमो व्ययः ।" अर्थात् किसी द्रव्य द्वारा रूपान्तर करते समय पूर्वभाव-पूर्वावस्था- का परित्याग करना द्रव्य का 'व्यय' स्वभाव कहा गया है। ___"ध्रौव्य - ध्रुवे स्थैर्य कर्मणि ध्रुवतीति ध्रौव्यः ।" अर्थात् उत्पाद और व्यय स्वभाव की परिस्थितियों में भी पदार्थ का अपने मूल गुण, धर्म और स्वभाव में बने रहना उस द्रव्य का 'ध्रौव्य' (ध्रुवत्व - ध्रुवस्वभाव) कहलाता है ।
उदाहरण के रूप में स्वर्ण का एक पिण्ड है। उस स्वर्णपिण्ड को गला कर उससे कंकण का निर्माण किया गया तो कंकरण का उत्पाद हुमा और स्वर्ण पिण्ड का व्यय हुा । दोनों ही परिस्थितियों में स्वर्ण द्रव्य की विद्यमानता उस स्वर्ण का ध्रौव्य है।
__ इसी प्रकार प्रात्मा, मनुष्य, देव या तिथंच रूप में उत्पन्न होता है तो वह प्रात्मा का मनुष्य, देवादि रूप में उत्पन्न होने की अपेक्षा से उत्पाद और देव तियंचादि पूर्व शरीर के त्याग की अपेक्षा से व्यय है। दोनों अवस्थाओं में आत्मगुण की विद्यमानता के कारण ध्रौव्य समझना चाहिये । पहली दो अवस्थाओं में अर्थात् उत्पाद और व्यय में वस्तु के पर्याय की प्रधानता है। जबकि अन्तिम ध्रौव्य अवस्था में द्रव्य के मूल रूप की प्रधानता है।
स्वर्ण के कंकण को तोड़ कर मंगलसूत्र बनाने की दशा में जिस प्रकार कंकरण के प्रति ममता रखनेवाली स्त्री के मन में विषाद, मंगलसूत्र के प्रति ममता रखने वाली सुहागिन के मन में हर्ष और स्वर्ण के मूल्य को समझने वाली तटस्थ स्त्री के मन में मुल द्रव्य,स्वर्ण के यथावत स्थिति में विद्यमान रहने के कारण तटस्थ भाव रहता है। उसी प्रकार सांसारिक तत्वों के उत्पाद-व्यय - ध्रौव्या
तत्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र २८]
' उत्पादव्ययध्रौव्य युक्त सत् ।
_ २ घटमौलिसुवर्णार्थी - नाशोत्पादस्थितिप्षयम् । .. शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥५६।।
[प्राप्त मीमांसा
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