________________
३२ . जैन धर्म का मालिक इतिहास-द्वितीय भाग [गण और गणपर
श्रमण भगवान महावीर द्वारा अर्थ रूप में कही गई वाणी को इन्द्रभूति आदि ने सूत्ररूप में प्रथित कर द्वादशांगी की रचना की । जैसा कि कहा है
प्रत्थं भासइ.परहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं ।
अब यहां सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब भगवान महावीर के गणधर ११ हैं तो उनके गरण भी ११ ही होने चाहिये। गण ११ न होकर ९ ही क्यों?
'वस्तुस्थिति यह है कि ग्यारह गणधरों की शास्त्र-वाचना.६ प्रकार की रही। इन्द्रभूति प्रादि प्रथम ७ गणधरों की प्रत्येक की प्रथक वाचना होने के कारण प्रत्येक के साधु-समुदाय की पृयक गण के रूप में गणना की गई। पर पाठवें और नौवें गणधर - प्रकंपित एवं प्रचलनाता की समान वाचना थी। उसी प्रकार मेतार्य और प्रभास इन दोनों- क्रमशः दसवें और ग्यारहवें गणधरों की भी वाचना एक थी। अतः वाचना के साम्य से अंतिम चार गणधरों में से दो-दो गरगधरों की एक-एक वाचना होने के कारण ग्यारह गणधरों के ९गरण कहलाये।
समवायांग सूत्र में भगवान महावीर के ग्यारह गणधर और गरण भी ग्यारह बताये गये हैं। संभव है वहां व्यवस्था की दृष्टि से ११ गणधरों के शिष्यमंडल अलग-अलग होने के कारण ग्यारह गण के रूप में माना गया है।
इनभूति और सुषर्मा को विशिष्ट पद । भगवान् महावीर के ग्यारह प्रमुख शिष्यों द्वारा चतुर्दश पूर्वो की रचना के पश्चात् प्रभु ने उन्हें गणधर घोषित किया ।
आवश्यक चूरिण और महावीर चरित्र आदि के अनुसार वैशाख शुक्ला एकादशी को भगवान् महावीर ने अपनी प्रथम देशना में ही अपने ११ प्रमुख शिष्यों को, जिसका जितना शिष्य समुदाय था उसको उतना गणरूप से प्रदान किया और वे गणधर कहलाये। चूर्णिकार आदि ने लिखा है कि प्रार्य सुधर्मा अन्य गणधरों की अपेक्षा दीर्घजीवी हैं और उनसे आगे धर्म-तीर्थ चलेगा, ऐसा जान कर प्रभु ने उनके लिये गण की अनुज्ञा दी और इन्द्रभूति को द्रव्य गुण, पर्यायों से तीर्थ की अनुज्ञा दी। अर्थात् इन्द्रभूति को तीर्थनायक और सुधर्मा को गणनायक के सम्मानित पद पर स्वयं प्रभु ने अपने हाथ से अभिषिक्त किया।
यहां पर यह विचार होता है कि जब शासनपति - तीर्थपति भगवान् स्वयं विराजमान हों तब इन्द्रभूति और सुधर्मा को क्रमशः तीर्थ एवं गण की अनुज्ञा देना क्या अर्थ रखता है ? उत्तर स्पष्ट है कि जैसे किसी सम्राट की शासन व्यवस्था में उसको सर्व सत्तासम्पन्न शासक मान कर भी शिक्षा, न्याय आदि की व्यवस्था अन्यान्य अधिकारियों द्वारा सम्पन्न करवाई जाती है और वे भी शासक कहलाते हैं, उसी प्रकार तीर्थकर भगवान् को पूर्ण सत्तासम्पन्न शासनपति मान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org