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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[गणधर-पद
मूल श्रागम - शास्त्रों में इस प्रकार की किसी प्रक्रिया का कहीं किंचित्मात्र भी उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता कि प्राचार्यों द्वारा प्रावश्यक चूरिंग प्रादि ग्रन्थों में उपरोक्त उल्लेख किस प्राधार पर किया गया है।
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गरगधर-पद की महत्ता
इन्द्रभूति गौतम ने चरमशरीरी गरणधर पद की प्राप्ति की। इससे उनके द्वारा पूर्वजन्म में की गई उत्कट साधना और प्रभूत पुण्योपार्जना का परिचय मिलता है। जैन परम्परा के आगम और भागमेतर साहित्य में विश्ववंद्य, त्रैलोक्य श्रेष्ठ तीर्थंकर-पद के पश्चात् गरणधर-पद को ही श्रेष्ठ माना गया है ।".
जिस प्रकार कोई विशिष्ट साधक प्रत्युच्च कोटि की साधना के द्वारा त्रैलोक्यपूज्य तीर्थंकर नामगोत्र का उपार्जन करता है उसी प्रकार गरगधर पद को प्राप्त करने के लिये भी साधक को उच्चकोटि की साधना करनी पड़ती है । तीर्थंकर नामगोत्र के उपार्जन के लिये तो श्रागमों में स्पष्ट उल्लेख है कि अमुक १६ या २० स्थानों में से किसी एक अथवा एक से अधिक स्थानों की उत्कट साधना करने से साधक तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन करता है । किन्तु गणधर नाम-कर्म की उपार्जना किस-किस प्रकार की उत्कृष्ट कोटि की साधना करने पर होती है, इसका कोई उल्लेख प्रागम साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता । श्रावश्यक मलयगिरि वृत्ति में इस प्रकार का उल्लेख अवश्य उपलब्ध होता है कि. भरत चक्रवर्ती का ॠषभसेन नामक पुत्र, जिसने कि पूर्व भव में गणधर नामगोत्र का उपार्जन किया था, संसार से विरक्त होकर दीक्षित हो गया । "
भद्रेश्वर ने ईसा की ग्यारहवीं शती में रचित प्रपने प्राकृत भाषा के " कहावली” नामक बृहद् ग्रन्थ में भी भगवान् ऋषभदेव के प्रथम गणधर ऋषभसेन के प्रव्रजित होने का उल्लेख करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि उन्होंने अपने पूर्वभव में गरणधर नाम गोत्र कर्म का उपार्जन किया था। इस सम्बन्ध में कहावलीकार भद्रेश्वर द्वारा उल्लिखित पंक्तियां इस प्रकार हैं
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"सामिरणो य समोसरणे ससुरासुरमरगुयसभाए धम्मं साहिन्तस्सोसभसेरगोनाम भरहपुसो पुग्वभवनिबद्धगरणहरनामगो जायसंवेगो पव्वइयो ।”
श्रमण भगवान् महावीर के इन्द्रभूति गौतम आदि ग्यारह गरणधरों ने भी अपने-अपने पूर्वजन्म में गणधर पद की प्रवाप्ति के योग्य किसी न किसी प्रकार की विशिष्ट साधना की थी इस प्रकार का संकेत कतिपय आचार्यों ने किया है । यथा
' प्रत्यन्ताप्तगोचरंश्रद्धास्थैर्यवतोऽनुष्ठानात्तीर्थकृत्त्वं, मध्यम, श्रद्धा समन्विताद् गणधरत्वम् । [ योगबिन्दुसार]
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१ देखिये जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, पृ० ह
3 "तत्य उसभसेरा नाम भरहपुत्तो पुग्वभवबद्धगरणहरनामगुत्तो जायसंवेगो पव्वइम्रो...!". [प्रावश्यक मलय, प्र०भा० ]
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