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इन्द्रभूति का चिन्तन] केवलिकालः इन्द्रभूति गौतम उसी दिन से लोक में ये दो उक्तियां प्रचलित हो गईं :
मुक्खमग्गपवनाणं, सिणेहो वज्जसिंखला।
वीरे जीवन्तए जामो, गोयमो न केवली ।। अर्थात् मोक्ष पथ के पथिकों के लिये स्नेह वज्रशृंखलाओं के समान है। इसका ज्वलंत उदाहरण है इन्द्रभूति गौतम का भगवान् महावीर के प्रति सीमातीत स्नेह, जिसके कारण वीरप्रभु की विद्यमानता में गौतम केवली न हो सके।
अहंकारोऽपि बोधाय, रागोऽपि गुरुभक्तये। .
विषादः केवलायाभूत् चित्रं श्री-गौतम प्रभोः ॥ . अर्थात् संसार के प्राणियों के लिये अहंकार, राग और बिषाद नितान्त अनर्थकारी हैं; पर बड़े पाश्चर्य की बात है कि गौतम स्वामी के लिये तो ये तीनों महान् अनर्थकारी सिद्ध होने के स्थान पर महान् लाभकारी सिद्ध हो गये क्योंकि अहंकार उन्हें शास्त्रार्य हेतु भगवान महावीर के पास लाया और उनके लिये बोधिप्राप्ति में परम सहायकं कारण हुआ। राग के कारण उनके हृदय में गुरुभक्ति उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई और वे गुरुभक्तों के प्रतीक माने जाने लगे। विषाद वस्तुतः सबके लिये दुःखदायी है पर गौतम इन्द्रभूति के लिये तो भगवान् महावीर के निर्वाण से उनके अन्तर में उत्पन्न हुआ विषाद भी उन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि कराने में कारण बना।
..इनभूति को निर्वाणसापना पचास वर्ष की वय में इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् महावीर के पास श्रमण दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा के प्रथम दिन में ही वे चतुर्दश पूर्वो के ज्ञाता बन गये। वे निरन्तर ३० वर्ष तक विनय भाव से भगवान् की सेवा करते हुए प्रामानुग्राम विचरण कर जिनशासन की प्रभावना करते रहे । उनके द्वारा दीक्षा ग्रहण करने के ३० वर्ष पश्चात् जब पावापुरी में कार्तिक कृष्णा अमावस्या को भगवान का निर्वाण हुमा तब प्रात्मस्वरूप का चिन्तन करते हुए उन्होंने घाति-कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया। उन्होंने बारह वर्ष तक केवलीभाव से पृथ्वीमण्डल पर विचरण करते हुए जिनमार्ग की प्रभावना की और अन्त में वीर निर्वाण सं० १२ के अंत में उन्होंने अपना अवसान काल निकट जान कर राजगह के गुणशील चैत्य में आमरण अनशन स्वीकार किया। एक मास के अनशन की भाराधना के पश्चात् समाधिपूर्वक काल कर वे सिम्बुद-मुक्त हो गये। मापकी पूर्ण प्रायु ६२ वर्ष की थी। पापका मंगल नामस्मरण पाज भी जन-जन के हदय को प्राल्लादित व मानंदित करता है। प्रतिदिन लाखों जन प्राज भी प्रभात को मंगल वेला में भक्तिपूर्वक भावविभोर हो बोलते हैं :
अंगूठे अमृत बसे, लधि तणा भण्डार । श्री गुरु गौतम समरिये, वांछित फल दातार ।।
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