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२२ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-दितीय भाग हृदय परिवर्तन पूर्वक प्रमागसंगत एवं हृदयग्राही युक्तियों से प्रात्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में इन्द्रभूति गौतम के मनोगन गम्पूर्ण संशयों का मूलोच्छेद कर दिया । हृत्तल के निविड़तम प्रज्ञानान्धकार को विनष्ट कर देदीप्यमान ज्ञानालोक प्रकट करने में समर्थ सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान महावीर के अमोघ वचनों का, परम सत्य को पहिचान कर उसे प्रात्मसात् करने की उत्कट अभिलापा रखने वाले इन्द्रभूति के पूर्वाग्रहों से विनिर्मुक्त स्वच्छ निश्छल अन्तर्मन पर अत्यन्त अद्भुत प्रभाव पड़ा। प्रभु की दिव्य ध्वनि से न केवल उनके अन्तर्मन के संदेह ही दूर हुए अपितु उनका अन्तर अचिन्त्य, अनिर्वचनीय अद्भुत एवं अलौकिक उल्लास से प्रोतःप्रोत हो गया।
हत्यपरिवर्तन इन्द्रभूति गौतम ने अपनी प्रांखों से असीम कृतज्ञता प्रकट करने के साथ-साथ अपने पापको प्रभुचरणों पर न्योछावर करते हुए हर्षगद्गद् स्वर में कहा-"भगवन् ! अव मैं सम्पूर्णरूपेण प्रापकी शरण में है। प्रभो ? माज का दिन मेरे लिये परम सौभाग्यशाली दिन है। आज मेरा सकल जीवन सफल हो गया क्योंकि आज मुझे पाप जैसे महान् जगत्गुरु प्राप्त हुए हैं। आपने मेरे हृदय में व्याप्त घोर अन्धकार को विनष्ट कर दिया है। आपकी युक्तिपूर्ण, सुधासिक्त शाश्वत-सत्य वाणी से मेरे मन के समस्त संशयों का समूल नाश हो गया है। मैं आपको पूर्णरूपेण सर्वज्ञ और सर्वदर्शी स्वीकार करता है तथा आपके वचनों एवं सिद्धान्तों पर प्रगाढ़ श्रद्धा रखता हूँ। आपके कृपाप्रसाद से मैंने वास्तविक सत्य को पा लिया है।"
पश्चात्ताप भरे स्वर में आत्मनिन्दा करते हुए इन्द्रभूति कहने लगे-"शोक ! महाशोक ! विश्व में मिथ्यात्व वस्तुतः पाप का बहुत बड़ा भण्डार है। अपने
जीवन का आज तक का इतना अमूल्य समय मैंने मिथ्यात्व का सेवन करते हुए ..व्यर्थ ही खो दिया है।"२.
इस प्रकार सर्वज्ञ प्रभु महावीर की अतुल प्रभावोत्पादक तर्क एवं युक्तिसंगत अमोघ वाणी द्वारा इन्द्रभूति गौतम की सत्यान्वेषिणी, सरल, स्वच्छ एवं अनाग्रहपूर्ण मनोभूमि में बोया हुआ एवं परिसिंचित आध्यात्मिकता का बीज सहसा अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हो उठा। .... पूर्वाग्रहों के प्रति किचित्मात्र भी मोह न होने तथा सत्य के प्रति परम निष्ठा के साथ-साथ सत्य को अपने जीवन में ढालने का प्रबल साहस होने के ' अचाहमेव धन्योऽहं (स्मि), 'सफलं जन्म मेऽखिलम् । . यतो मयातिपुण्येन, प्राप्तो देवो जगद्गुरुः ।।१३४।।
. - [वीर वर्धमानचरित्र-भट्टारक श्री सकलकीति] . २ ग्रहो मिथ्यात्व मार्गोऽयं, विश्वपापाक रोऽशुभः । चिरं वृथा मया निन्दः, सेवितो मूढचेतसा ॥१३३।।
[वही]
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