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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रेत्य संज्ञा का अर्थ उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् पट को देखने पर प्रात्मा का ध्यान घट की ओर से हट कर पट की ओर आकर्षित हुअा। उस दशा में घट के दृष्टि से ओझल होने के साथ ही आत्मा का घटोपयोग नष्ट हो गया और उसका स्थान प्रात्मा में पटसम्बन्धी ज्ञान होने के कारण पटोपयोग ने ले लिया और इस तरह पटोपयोग के आविर्भूत हो जाने पर प्रात्मा में घटोपयोग की प्रत्य अर्थात् पूर्व की संज्ञाजानकारी नहीं रहती।"
"ज्ञान वस्तुतः भूतों का धर्म नहीं है क्योंकि वह वस्तु के अभाव में भी विद्यमान और वस्तु की विद्यमानता में अविद्यमान भी रहता है। जिस प्रकार घट से पट एक भिन्न वस्तु है, उसी प्रकार भूतों से ज्ञान नितान्त भिन्न वस्तु है । घट और पट दोनों भिन्न-भिन्न दो वस्तुएं होने के कारण जिस प्रकार घट के अभाव में पट की और पट के अभाव में घट की विद्यमानता रहती है, उसी प्रकार मुक्तावस्था में वस्तुओं का अभाव होने पर भी उनका ज्ञान विद्यमान रहता है और मृत शरीर में भूतों की विद्यमानता रहने पर भी ज्ञान नहीं रहता। वस्तुतः शरीर और जीव एक दूसरे से भिन्न दो वस्तुएं हैं। शरीर जीव का आधार और जीव शरीर का प्राधेय है। उपयोग, अनुभूति, संशयादि विज्ञान जीव के लक्षण अरूपी-अमूर्त हैं, पर शरीर मूर्त है। किसी मूर्त का गुण अमूर्त नहीं हो सकता, अतः विज्ञानादि अमूर्त गुण मूर्त शरीर के नहीं अपित् अमूर्त आत्मा केही हो सकते हैं। जिस प्रकार दूध में घी, तिल में तेल, काष्ठ में अग्नि, पुष्प में सुगन्ध, चन्द्रकान्त मरिण में सुधा घुलीमिली प्रतीत होने पर भी वस्तुतः दुग्ध प्रादि से भिन्न है, उसी प्रकार शरीर के सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंगों में व्याप्त आत्मा भी निश्चित रूपेरण शरीर से भिन्न है।"
एकात्मवाद का निराकरण तदनन्तर-"पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यं, उतामृतत्वस्येशानः यदन्नेनातिरोहति, यदेजति, यन्नेजति, यद्रे, यदुअन्तिके यदन्तरस्य सर्वम्य, यत् सर्वस्यास्य बाह्यतः ।
[ईशावास्योपनिषद् तथा :
एक एव हि भूतात्मा, भूते-भूते प्रतिष्ठितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ।। यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । संकीर्णमिव मात्राभिभिन्नाभिरभिमन्यते ।। तथेदममलं ब्रह्म, निर्विकल्पमविद्यया ।
कलुषत्वमिवापन्नं, भेदरूपं प्रकाशते ।। + क्षीरे घृतं तिले तैलं काष्टेऽग्निः सौरभं सुमे । . चन्द्रकान्ते सुधा यद्वत्तथात्माप्यंगतः पृथक् ।।
[गणधरवाद की टीका]
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