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विजामवन का अर्थ केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम
इन वेद-पदों से प्रात्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है । दूसरी पोर - 'विज्ञानघन एवतेभ्यो भूतेभ्यः समृत्थाय तान्येवानुविनश्यति, न प्रेत्य संज्ञास्ति''
इस वाक्य से तज्जीव तच्छरीरवाद की प्रतिध्वनि व्यक्त होती है। वेद के इन वाक्यों को परस्पर विरोधी मानने के कारण तुम्हारे मन में जीव के अस्तित्व के सम्बन्ध में संशय उत्पन्न हुया है। गौतम ! उपर्युक्त अंतिम वेदवाक्य का वस्तुतः तुम अर्थ ही नहीं समझे हो । मैं तुम्हें इसका सही अर्थ समझाता हूं।"
विज्ञानधन का वास्तविक पर्व "इस वाक्य में ज्ञानोपयोग-दर्शनोपयोगरूप विशिष्ट ज्ञानपुंज से युक्त प्रात्मा को विज्ञानघन कहा गया है, क्योंकि प्रात्मा स्वयं ज्ञानपंज है। विज्ञान प्रात्मा से पृयक नहीं है। विज्ञान की दृष्टि से प्रात्मा सर्वव्यापी है। वह अात्मविज्ञान घटपटादि भूतों के ज्ञान से विज्ञान के रूप में उत्पन्न होता है । जव वे घटपटादि भूत शनैः शनैः विज्ञानघन प्रात्मा का ध्यान दूसरी ओर प्राकर्षित होने के कारण विज्ञेय के भाव से नष्ट - तिरोहित हो जाते हैं तो वह आत्मा का विज्ञान स्वरूप अपने उस पूर्वोपलब्ध घटपटादि के ज्ञान की दृष्टि से उन घटपटादि के विनष्ट अर्थात् तिरोहित होते ही उन्हीं के साथ नष्ट हो जाता है।"
उक्त वेदवाक्य का तात्पर्य यह है कि विज्ञानघन प्रात्मा को घटपटादि भूतों के देखने से जो घटविषयक अथवा पटविषयक ज्ञान होता है, वह क्रमशः अन्य वस्तुओं की ओर ध्यान आकर्षित होने पर नष्ट हो जाता है और उसके स्थान पर वृक्ष, फूल, फलादि अन्य वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है । किसी वस्तु के प्रथम दर्शन से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसके अनन्तर दूसरी वस्तु के दर्शन से तद्विषयक नवीन ज्ञान होते ही पूर्व वस्तुओं से सम्बन्ध रखने वाले ज्ञान का स्थान नवीन वस्तुओं का ज्ञान ग्रहण कर लेता है। यही क्रम आगे से आगे चलता रहता है। इस प्रकार पहले देखी हुई वस्तु का ज्ञान उसके पश्चात् देखी हुई वस्तु के ज्ञान के साथ ही नष्ट हो जाता है। वस्तुतः आत्मा नप्ट नहीं होती, अपितु पूर्ववर्ती ज्ञान का स्थान पश्चाद्वर्ती ज्ञान द्वारा ले लिये जाने पर वह पूर्ववर्ती घटपटादि ज्ञेय वस्तुओं का ज्ञाता विज्ञान ही नष्ट होता है । एक ज्ञेय के पश्चात् अन्य जेय का ज्ञान विज्ञानघन आत्मा में अविकल रूप से क्रमशः चलता रहता है अतः प्रात्मा के नष्ट होने का तो प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।"
वेदपद में प्रयुक्त प्रेत्य संज्ञा का वास्तविक अर्थ "न प्रेत्य संज्ञास्ति' इस वेदपद का अर्थ समझाते हए प्रभू महावीर ने कहा-"घट को देखते ही पात्मा में घटोपयोग अर्थात् जेयभूत घट का विज्ञान १ वहदारण्यकोपनिषद् (१२-५३८) में "न प्रेन्य संज्ञास्ति' इमगे नागे "इत्वरे ब्रवीति होवाच याज्ञवल्क्यः "- देकर वाक्य की पूर्ति की गई है।
. [सम्पादक
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