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जीव प्रत्य-सिब है] केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम
भगवान महावीर द्वारा उद्बोधन इन्द्रभूति गौतम अपने मन में इस प्रकार के विचार कर ही रहे थे कि प्रभु महावीर ने उनसे कहा-"गौतम! तुम्हारे मन में प्रात्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में सन्देह है । तुम यह सोचते हो कि जीव घट-पट आदि की तरह प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता और जो वस्तु प्रत्यक्ष में किसी भी तरह दिखाई नहीं देती उसका प्राकाशकुसुम अथवा खर-विषाण की तरह संसार में कोई अस्तित्व नहीं होता।'
वेदवाक्यों के गूढार्थ को अच्छी तरह समझ नहीं पाने के कारण तुम्हारे मन में यह संशय उत्पन्न हुआ है । लो सुनो, मैं तुम्हें वेद की ऋचाओं का वास्तविक अर्थ समझाता हूं।"
कभी किसी पर प्रकट नहीं किये गये अपने मन के निगूढ़तम संदेह को भगवान् द्वारा प्रकट कर दिये जाने पर इन्द्रभूति गौतम साश्चर्य निनिमेष दृष्टि से भगवान की ओर देखने लगे । वे मन ही मन सोचने लगे - "अाज तक किसी भी व्यक्ति के सम्मुख प्रकट नहीं किया गया मेरा मनोगत गूढतम संशय इन्हें कैसे विदित हो गया? सर्वज्ञ के अतिरिक्त मनोगत भावों को कौन जान सकता है ? वस्तुतः क्या में किसी सर्वज्ञ के सम्मुख खड़ा हूं?"
जीव प्रत्यक्ष-सिद्ध है इन्द्रभूति मन ही मन इस प्रकार के ऊहापोह में लीन थे, उसी समय प्राणिमात्र के मनोगत भावों को जानने वाले महावीर प्रभु की घनरव गम्भीर वारणी उनके कानों में गूंज उठी - "इन्द्रभूते ! मैं सर्वज्ञ होने के कारण जीव को प्रत्यक्ष देख रहा हूं। जीव तुम्हारे लिये भी प्रत्यक्ष है। तुम्हारे अन्तर में जीव के अस्तित्वानस्तित्व विषयक शंका जिसको हुई है, वही वस्तुतः जीव है । चित्त, चेतना, संज्ञा, विज्ञान, उपयोग, संशय, जिज्ञासा, सुखदुःखादि की अनुभूति, चिकीर्षा, जिगमिषा, दुःखों से सदा दूर भागने और बचे रहने की प्रवृत्ति, सुखपूर्वक चिरंजीवी रहने की लिप्सा आदि समस्त लक्षण देहधारी प्रत्येक आत्मा में स्पष्टतः प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं अतः प्रात्मा का अस्तित्व भी प्रत्यक्ष प्रमाण से ' (क) जीवे तुव संदेहो, पच्चक्खं जं न पिप्पइ घडोव्व ।
प्रच्चन्तापच्चक्खं च, नत्थि लोए खपुप्फ व ।।१५४६।। [विशेषा० भा०] (ख) जंपइ पुणोवि भयवं, तुह हियए संसपो समुप्पण्णो । जीवो कि पत्थि रण वात्थि एत्थ तं मुगासु परमत्थं ।।
इन उपत्र म• पु० चरियं, पृ० १ ०१J २ वत्तणालक्खरणो कालो, जीवो उवप्रोगलक्खगो। नाणेणं दंसरणेणं च, सुहेण य दुहेण य ।।१०।। नारणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । वीरियं उवनोगो य, एवं जीवस्स लक्खणं ।।११।। [उत्तराध्ययन मुत्र, अ. २८]
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