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शास्त्रार्थ के लिए प्रयाण] केवनिकाल : इन्द्रभूति गौतम जयघोषों से गगनमण्डल को गुंजाते हुए इन्द्रभूति के पीछे-पीछे भगवान महावीर के समवसरण की ओर बढ़ चले।
म. महावीर को देख कर विचार मार्ग में अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्प करते हुए इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर के समवसरण के सन्निकट पहुंचे। अष्ट महाप्रातिहार्यों और श्रमण भगवान् महावीर के महाप्रतापी अलौकिक ऐश्वर्य को देख वे अत्यन्त प्राश्चर्य से स्तंभित हो सीढ़ियों पर निश्चल खड़े रह कर निनिमेष दृष्टि से प्रभु की ओर देखते ही रह गये। वे मन ही मन सोचने लगे "कहीं ये साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु प्रथवा शंकर तो नहीं हैं। चन्द्र तो ये निश्चित रूप से नहीं है, क्योंकि चन्द्र तो सकलंक होता है और इनका स्वरूप, शान्त, स्वच्छ एवं निष्कलंक है। ये सूर्य भी नहीं है, क्योंकि सूर्य तो संतापकारी प्रखर किरणों वाला है, पर इनका स्वरूप बड़ा ही सौम्य, सुखद, शीतल, मनोहारि और नयनाभिराम है।" . . "ये सुमेरु पर्वत भी नहीं हैं क्योंकि प्रति कठोर सुमेरु की तुलना में ये प्रत्यन्त सुकोमल हैं। न ये विष्णू ही हो सकते हैं, क्योंकि विष्णु तो सस्यश्यामल वर्णवाले हैं और इनका स्वरूप तपाये हुए स्वर्ण के समान बड़ा ही मनोहारि है। यह ब्रह्मा भी नहीं हैं क्योंकि ब्रह्मा बुड्ढा है और ये युवा हैं । ये कामदेव भी नहीं हो सकते क्योंकि वह तो वृद्धावस्था से सदा भयभीत रहने वाला और अशरीरी है।"
"तो निश्चित रूप से मुझे यह विश्वास करने के लिये बाध्य होना पड़ रहा है कि उन सब दोषों से रहित और समस्त गुणों से सम्पन्न ये अन्तिम तीर्थंकर हैं।" (३) पादि-गव-सिंह,
(१९) पादितुल्सुरेल, (१) बादीश्वरलीह,
(२०) वादिगरुड़गोविन्द, (७) बादिसिंहाष्टापद,
(२१) वादिजनराजान, (८) बादिविनयविशद,
(२२) वादिकंसकान्ह, (९) वादिवृन्वभूमिपाल,
(२३) वादिहरिणहरिः, (१०) वादिशिरःकाल,
(२४) वादिज्वरधन्वन्तरि, (११) बादिकदलीकपाण,
(२५) वादियूथमल्ल, (१२) बादितमोमाण,
(२६) वादिहृदयशल्य, (१३) बादिगोधूमपरट्ट,
(२७) वादिगरणजीपक, (१४) मदितवादिमरट्ट,
(२८) वादिशलभदीपक, (१५) वादिषटमुद्गर,
(२९) वादिचक्रचूड़ामणि, (११) वादिषूकमाकर,
(३०) पण्डितशिरोमणि, .(१०) वादिसमुद्रागस्ति,
(३१) विजितानेकवाद, और (१०) पावितस्मूलनहस्ती,
(३२) सरस्वतीलषप्रसाद ।
[सम्पादक] 'ब चुतणं पत्तो, बढुं तेल्लुक्कपरिपुर वीरं। परतीसाइसयनिहि, स संकिमो चिठ्ठिो पुरभो ॥१२४।।
[भावश्यक, मलय, पत्र ३१३]
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