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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [शास्त्रार्थ के लिए प्रयाण देवों द्वारा यज्ञभूमि का उल्लंघन कर भगवान् महावीर के समवसरण में जाने की घटना पर कुछ क्षण विचार करने के अनन्तर इसे अपने अहं पर वज्राघात समझ कर इन्द्रभूति ने आवेशपूर्ण स्वर में कहना प्रारम्भ किया- "इस मायावी ने अपने आपको सर्वज्ञ घोषित कर के अकारण ही मेरी क्रोधाग्नि को भड़का दिया है। यह तो इसका वस्तुतः वैसा ही दुस्साहस है जैसे मानो कोई मेंढक भयंकर काले विषधर को चपत लगाना, म्वर्गलोक के निवासी देव पर धरती पर रहने वाला बैल अपने सींगों से प्रहार करना, एक हाथी अपने दांतों से गिरिराज को उखाड़ कर धराशायी करना और एक अकिंचन शशक सिंह के कन्धे के बालों को खींचना चाहता हो। जिस प्रकार कोई मूढ़ व्यक्ति शेषनाग के मस्तक की मणि को लेने के लिये हाथ बढ़ा कर अपने काल को स्वयं बुलावा देता है उसी प्रकार इसने अपनी सर्वज्ञता का आडम्बर रच कर मेरे क्रोध को भड़का दिया है। जिस प्रकार कोई मूर्ख व्यक्ति घने जंगल में आग लगा कर उसके मध्य भाग में बैठ जाता है अथवा कोई बुद्धिहीन व्यक्ति सुखप्राप्ति की अभिलाषा से कंटकलता का आलिंगन करता है, ठीक उसी प्रकार इसने मेरी उपस्थिति में सर्वज्ञता का ढोंग रच कर अपने लिये संकट को निमन्त्रित किया है। खद्योत तभी तक टिमटिमाता और चन्द्र तभी तक चमकता है जब तक कि प्रखर किरणों वाला प्रचण्ड मार्तण्ड उदित नहीं हो जाता। सूर्योदय हो जाने पर न कहीं खद्योत का पता चलता है और न कहीं चन्द्रमा का ही। ओ हाथियो ! हरिणो और वन्य पशुओं के मुण्डो! अब इस जंगल से शीघ्रातिशीघ्र भाग निकलो। देखो! क्रोष से अपनी ग्रीवा की बड़ी-बड़ी केमर का प्राटोप बनाये तुम्हारा काल वह सिंह पा रहा है।"
"ऐसा प्रतीत होता है कि मेरे सौभाग्य से ही यह वादी यहां पाया है। आज मै निश्चित रूप से इसकी जिह्वा की खुजली सदा के लिये मिटा दूंगा।"
शास्त्रार्थ के लिये प्रयारण इस प्रकार का निश्चय कर इन्द्रभूति गौतम ने यज्ञोपवीत, पीला चोला आदि बारह विशिष्ट चिह्न धारण कर अपने ५०० शिष्यों के साथ श्रमण भगवान् महावीर के समवसरण की ओर प्रस्थान किया।
इन्द्रभूति के अनेक शिष्य अपने हाथों में विविध प्रकार के उपकरण लिये हुए थे। कई शिष्य कमण्डलु और कई विजय के द्योतक पवित्र दर्भ हाथों में लिये हुए थे। वे सभी ५०० शिष्य अपने गुरु इन्द्रभूति की महिमा के चोतक "सरस्वतीकण्ठाभरण की जय हो", "वादिविजयलक्ष्मीशरण की जय हो", "वादिमदगंजन-वादिमुखभंजन की जय हो", "वादिगजसिंह की जय हो" आदि ' कल्पसूत्र की सुबोषावृत्ति (पृ. ३८६) के उल्लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि इनभूति गौतम को अनेक शास्त्राचों में विजयोपलब्धि के फलस्वरूप उस समय की परम्पराविशेष के विद्वसमाज द्वारा निम्नलिखित उपाधियों से संबोधित किया जाता ण:(१) सरस्वती कण्ठाभरण,
(३) वादि-मदगंजन, (२) वादिविजयलक्ष्मीशरण,
(४) वादि-मुख-मंजन,
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